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________________ रस-परिपाक १४५ दष्टदन्तच्छदं बद्धभूभङ्गं मुक्तहुकृति। ग्रहाविष्टमिवानिष्टं घोरं युद्धमिहाभवत् ॥ यहाँ स्थायी भाव ‘भय', किष्किन्धा/सौराष्ट्र सेना रूप आलम्बन के माध्यम से, ओंठ चबाना, भृकुटि टेढी करना, हुंकार करना आदि उद्दीपनों से परिपुष्ट होता हुआ भयानक रस के रूप में आस्वादित होता है । धनञ्जय विरचित द्विसन्धान-महाकाव्य के एक अन्य प्रसंग में राम/कृष्ण की सेनाओं द्वारा अपने प्रतिपक्षी रावण/जरासन्ध के विरुद्ध की गयी भयोत्पादक विनाशलीला का वर्णन किया गया हैपतितसकलपत्रा तत्र कीर्णारिमे दावनततिरिव रुग्णा सामजैर्भूमिरासीत् । निहतनिरवशेषा स्वाङ्गशेषावतस्थे कथमपि रिपुलक्ष्मीरेकमूला लतेव ॥२ प्रस्तुत प्रसंग में कवि न टूटे-फूटे रथों से व्याप्त तथा शत्रु-योद्धाओं की चर्बी से लथपथ युद्धभूमि का चित्रण किया है। उसने इस दृश्य की जंगली हाथियों द्वारा उजाड़ी गई अटवी से तुलना की है। समस्त सेना के नष्ट हो जाने पर शत्रुओं की लक्ष्मी अपनी मूल मात्र के सहारे सीधी खड़ी प्रतीत होती है, जैसे कि समस्त पत्तों और फल-फूल के नष्ट हो जाने पर एक लता का अस्तित्व केवल उसकी जड़ पर ही आश्रित रह जाता है । कवि ने यहाँ शत्रु राजा रावण/जरासन्ध का नामोल्लेख न करके केवल शत्रुओं की लक्ष्मी कहकर ही अपना मन्तव्य प्रस्तुत कर दिया है। इस प्रकार कवि-कल्पना उसके द्वारा प्रयुक्त यथोचित विशेषणों से द्विगुणित हो गयी है। बीभत्स रस घृणित अथवा घृणोत्पादक वस्तुओं के दर्शन अथवा श्रवण से मानव मन मे जो घृणा की भावना उत्पन्न होती है, वही बीभत्स रस की उत्पादिका है । वस्तुत: 'जुगुप्सा' स्थायी भाव की अभिव्यञ्जना ही बीभत्स रस' है । प्राणियों को कतिपय १. द्विस., ९.४६ २. वही,१६.८५
SR No.022619
Book TitleDhananjay Ki Kavya Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBishanswarup Rustagi
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year2001
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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