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________________ १३६ सन्धान-कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना को पृथक क्यों करती हो? ऐसा सम्भव है कि कभी भूल हुई हो । अब क्रोध छोड़ दो । जीते जी अब ऐसा अपराध कभी नहीं करूंगा। ऐसी शपथ ले लेने पर भी मैं यथार्थ नहीं जानता कि तुम किस कारण से कुपित हो । विविध प्रकार से अपनी प्रार्थना किये जाते हुए देखकर क्या तुम वास्तव में ही मुझको अपराधी समझती हो । मझ जैसे नये प्रेमी से बोलती भी नहीं हो और मुझे ही अहंकारी तथा अन्य प्रेमिका द्वारा रोका गया सोचती हो । इस प्रकार प्रेमी द्वारा की जाने वाली मनौती से नायिका का अपरिमित मान स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त हो रहा है। मान-खण्डन संस्कृत काव्य साहित्य में मान-वर्णन के पश्चात् मान-खण्डन का लालित्यपूर्ण वर्णन भी प्रस्तुत किया जाता है । द्विसन्धान-महाकाव्य में भी परम्परा के अनुकूल मान-खण्डन का वर्णन प्रस्तुत किया गया है शिथिलय हृदयं न मेऽनुरागं विसृज विषादमिमं न तन्वि वाक्यम्। इति दयितमुपागमैकदौत्यं स्वयमबलाभिगतं कथञ्चिदैच्छत् ॥१ अभिप्राय यह है कि प्रेमी ने स्वयं ही दूत बनकर प्रिया को मनाया कि मन की गाँठ को तनिक ढीला करो, मेरी प्रगाढ़ प्रीति को नहीं । इस शोक को छोड़ो, अपनी प्रेम-प्रतिज्ञा को मत तोड़ो। स्वयं दूत बनकर आये हुए प्रेमी के इस प्रकार मनाने पर सरला नायिका ने बड़े नखरे के साथ उसको अङ्गीकार किया। सामान्यत: इस प्रकार के मान-खण्डन के प्रसंगों में प्रेमी प्रेमिका को मनाने के लिये दूती भेजता है। प्रेमिका उस दूती पर क्रोध करने के उपरान्त प्रेमी को अंगीकार करती है। द्विसन्धान के उक्त मान-खण्डन प्रसंग में प्रेमी ने अपना दौत्यकर्म स्वयं किया है, सम्भवत: इसीलिए वह खिन्न है। प्रेमिका भी उसकी इस स्थिति से सुपरिचित है, इसलिए वह उस पर क्रोध न कर, उसे खिजाती है मधुरमभिहितो न भाषते मां न खलु भवानभिचुम्बित: प्रणिस्ते । न च परिरभते कृतोपगूढ़ पटलिखित: स्विदपेक्षते न दृष्टः ॥२ प्रस्तुत प्रसंग में मानिनी नायिका ने मानभङ्ग होने के उपरान्त नायक को अङ्गीकार करते हुए किस प्रकार खिजाया, -इसका अत्यन्त प्रभावशाली चित्रण १. द्विस.,१५.२६ २. वही,१५.३०
SR No.022619
Book TitleDhananjay Ki Kavya Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBishanswarup Rustagi
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year2001
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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