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________________ १३५ रस-परिपाक (२) विप्रलम्भ शृंगार सम्भोग शृङ्गार से विपरीत वियुक्त प्रेमी तथा प्रेमिका के व्यवहार से उत्पन्न शृङ्गार 'विप्रलम्भ शृङ्गार' कहलाता है। विप्रलम्भ शृङ्गार पूर्वराग, मान, प्रवास, एवं करुणात्मक राग से चार प्रकार का होता है । धनञ्जय कृत द्विसन्धान-महाकाव्य में विप्रलम्भ शृङ्गार सम्बन्धी निम्नलिखित विवरण उल्लेखनीय हैं(क) मान प्राय: संस्कृत के महाकवियों ने विप्रलम्भ शृङ्गार के अन्तर्गत मान का बड़ा ही नैसर्गिक एवं जीवन्त चित्रण किया है । धनञ्जय ने भी अपने द्विसन्धान-महाकाव्य में असूया से उत्पन्न होने वाले 'मान-विप्रलम्भ' का अत्यन्त हृदय-स्पर्शी वर्णन किया है प्रशमय रुषितं प्रिये प्रसीद प्रणयजमप्यहमुत्सहे न कोपम्। तव विमुखतयाऽधिरूढचापे मनसिशये कुपिते कुत: प्रसादः ।। मम यदि युवतिं विशङ्कसेऽन्यां श्वसिमि तव स्वसितैर्मृषान्ययोगः। .. भवतु मनसि संशयस्त्वमैक्यात्प्रविभजसे त्वयि जीवितं कथं मे ।। न पुनरिदमहं करोमि जीवन्निति शपथेऽधिकृते पुराकृतं स्यात् । त्यज कुपितमितीरिते नु सत्यं कुपितवती भवसीव तन्न जाने । बहुतिथमवलोक्य नाथमानं कलयसि सत्यमिमं कृतापराधम्। अनुदितवचनं नवप्रियं मां गणयसि गर्वितमन्यवारितं वा ॥२ प्रस्तुत प्रसंग में मानिनी नायिका का अतिस्वाभाविक चित्रण हआ है। एक प्रेमी अपनी प्रिया के मान की तुष्टि के लिये उससे कहता है- हे प्रिये ! कोप को शान्त करो, प्रसन्न हो जाओ। मैं प्रणय की लड़ाई को भी सहन नहीं कर सकता। तुम्हारे मुख मोड़ लेने पर तथा मन में उत्पन्न कामदेव के धनुष चढ़ा लेने पर मेरी कुशलता असम्भव है । यदि तुम्हें मेरी किसी दूसरी प्रेमिका के होने का सन्देह है तो विश्वास रखो, मैं तुम्हारी साँस से ही जीवित हूँ, पर-सम्बन्ध असत्य है । मन का सन्देह त्याग दो । तुम से ही मेरा जीवन है । तुम अपने प्राणों में अन्तर्हित मेरे प्राणों १. का.रु.,१२६ २. द्विस.,१५.२२-२५
SR No.022619
Book TitleDhananjay Ki Kavya Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBishanswarup Rustagi
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year2001
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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