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________________ १३४ सन्धान- कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना ओंठ काट लिया था । इतना ही नहीं भोगक्रिया में लीन उस कान्ता ने प्रिय के चित्त में चित्त, शरीर में शरीर, मुख में मुख, कन्धे पर कन्धा और जंघा से जंघा समस्त वस्तुओं को एकमेक कर दिया था । किन्तु, इस समस्त क्रिया में उसने लज्जा को साथ नहीं रखा अर्थात् उन्मुक्त रूप से सहवास का आनन्दभोग किया । 1 उक्त उद्धरणों में स्थायी भाव रति है । प्रेमी-प्रेमिका परस्पर आलम्बन विभाव हैं । स्तन, जंघाएं, ओष्ठ आदि उद्दीपन विभाव हैं । हर्ष, उन्माद, चपलता, औत्सुक्य आदि व्यभिचारी भाव हैं। आलिङ्गन, चुम्बन आदि अनुभाव हैं । रोमाञ्च, स्वेदादि सात्विक भाव हैं । इनके सहयोग से पूर्ण सम्भोग शृङ्गार की अभिव्यञ्जना हो रही है । मधुपान स्वच्छवृत्ति रसिकं मृदु चाईं तत्तथापि मधुमानवतीनाम् । रूपयौवनमदस्य विकारैर्मत्तमत्तमिव विप्रललाप | मानो व्यतीतः कलहं व्यपेतं गतानि गोत्रस्खलितच्छलानि । गुरून्प्रहारान्मधु सन्दधीत क्षतं पुनः कामिषु तत्कियद्वा ॥१ प्रस्तुत प्रसंग में मधुपानका कामीजनों की कामक्रीडा पर क्या प्रभाव पड़ता - इसका प्रभावशाली वर्णन कवि ने किया है । यद्यपि मदिरा अत्यन्त स्वच्छ थी, रसीली थी, कोमल थी और शीतल थी, तथापि मानवती नायिकाओं के सौन्दर्य, यौवन और अहंकार के आवेश के कारण अत्यन्त उन्मत्त के समान अनर्गल आलाप का कारण हुई थी । यह रोष धीरे-धीरे शान्त हो गया, कलह समाप्त हो गयी तथा दूसरे नायक-नायिका का नाम लेकर चिढ़ाने की प्रक्रिया भी नहीं चल सकी । मदिरा आवेश में कामी युगल परस्पर पूरी शक्ति से उलझ रहे थे । ऐसी स्थिति में उन्हें दन्तक्षत और नखक्षत की चिन्ता भी नहीं रह गयी थी । यहाँ रति स्थायी भाव है । प्रेमी और प्रेमिका परस्पर आलम्बन विभाव हैं । मदिरापान, नायिका की चेष्टाएं आदि उद्दीपन विभाव हैं । हर्ष, उन्माद, चपलता, औत्सुक्य आदि व्यभिचारी भाव 1 I T हैं । दन्तक्षत, नखक्षत, उलझना आदि अनुभाव हैं। रोमाञ्च, स्वेदादि सात्विक भाव आक्षिप्त हैं । इनके सहयोग से सम्भोग शृङ्गार का परिपाक स्पष्टरूपेण हो रहा है । 1 १. द्विस, १७.५९-६०
SR No.022619
Book TitleDhananjay Ki Kavya Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBishanswarup Rustagi
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year2001
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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