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________________ द्विसन्धान-महाकाव्य का सन्धानात्मक शिल्प-विधान (१०.३६), अनूनभाजाम्बव: (११.१३), आलापरञ्जनानन्दन: (११.२२), पाण्डुराजकुलवृद्धिम् ( १२.९), हिरण्यकशिपूदयपक्षपाती (१२.५२), सज्जरासन्धरयादृतस्य (१३.३०), महाभीममत्स्यध्वजौघाम् (१३.४३), गतधृतिमत्स्यदेशमाढ्यम् (१४.२३), समलयजाङ्कपयोधरोचिताभिः (१५.१), प्रभावितारातनयस्य (१६.३५), सहितजनकीयनन्दनम् (१७.३६) आदि पद भी वक्रोक्ति-भङ्ग के वैशिष्ट्य के कारण द्विसन्धान शैली को सार्थकता प्रदान कर रहे हैं । ८५ २. यमकमूलक सन्धान-विधि सन्धान-विधि के माध्यम से द्व्यर्थक-काव्य की सर्जना में यमक अलंकार भी एक महत्वपूर्ण घटक है । यद्यपि यमक के माध्यम से दो विभिन्न कथानक-सम्बन्धी अर्थ निष्पन्न होने असम्भव प्राय हैं, तथापि एक ही शब्दावली से दो अर्थ देने में यमक का स्थान भी काव्यशास्त्र में पीछे नहीं है । यमक में अक्षर अथवा पदों की आवृत्ति होती है तथा आवृत्त अक्षर एवं पद से दूसरे अर्थ की निष्पत्ति होती है । श्लेष की भाँति यमक में भी पद-सन्धियाँ आदि सभी विद्वानों को अभिमत हैं । यह अलंकार, चूँकि शब्दावृत्ति प्रधान है, इसी कारणवश शब्दों की आवृत्ति कर द्वितीय अर्थ देता है । यमक अलंकार के अन्तर्गत मुख्य रूप से दो प्रकार की आवृत्ति आवश्यक मानी गयी है— (क) पदों की आवृत्ति तथा (ख) पादों की आवृत्ति । (क) पदों की आवृत्ति | पदों की आवृत्ति को ध्यान में रखकर संस्कृत काव्यशास्त्रियों ने यमक के अनेक भेद कर, उसका विशद विवेचन किया है । फलस्वरूप सन्धान-काव्य के निर्माता कवियों के लिये एक सुदृढ़ काव्यशास्त्रीय - परम्परा की स्थापना हुई । काव्यशास्त्र के विभिन्न ग्रन्थों में दिये हुए यमक की आवृत्ति के विभिन्न प्रयोगों को लक्ष्य में रखकर परीक्षण करने से यह नियम ज्ञात होता है कि यमक की आवृत्ति में किसी एक सुनिश्चित क्रम की एकरूपता का पालन होना नितान्त आवश्यक है I इस क्रमबद्धता के अतिरिक्त भिन्नार्थकता भी यमक का उपजीव्य तत्व है । द्विसन्धान-महाकाव्य में इस प्रकार के प्रयोग पर्याप्त दृष्टिगोचर होते हैं । उदाहरण के लिये
SR No.022619
Book TitleDhananjay Ki Kavya Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBishanswarup Rustagi
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year2001
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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