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________________ सन्धान-कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना धीरन्तुं गां गत्वा स यस्यामरस्य . धीरं तुङ्गाङ्गत्वाच्छ्रियो वञ्चति द्याम्। रिक्तः स्वर्गेणाकारि मानोऽज्ञकेन साम्यं किं सोऽस्या याति मानोज्ञकेन ।। यहाँ एक सुनिश्चित क्रम से प्रथम और द्वितीय पादों के आदि में 'धीरन्तुं गांगत्वा' पद की तथा तृतीय और चतुर्थ पादों के अन्त में 'मानोज्ञकेन' पद की आवृत्ति हुई है । यद्यपि दोनों पद आवृत्त हुए हैं, तथापि सन्धि-विग्रह आदि पूर्वक वे भिन्नार्थक हैं। धीरन्तुङ्गाङ्गत्वा' से एक स्थान पर 'रन्तुं क्रीडितुं धी: बुद्धिः-गां भूमिं गत्वा' अर्थ निकलता है, तो दूसरे स्थान पर 'धीरं नि:क्षोभम् । तुङ्गाङ्गत्वात् स्फीतावयवत्वात्' । इसी प्रकार 'मानोज्ञकेन' से एक स्थान पर 'मानोऽभिमानः । अज्ञकेन मूढेन' तथा दूसरे स्थान पर 'मनोहरत्वेन' अर्थ निष्पन्न होता है । (ख) पादों की आवृत्ति पदावृत्ति की भाँति यमक में एक सुनिश्चित क्रम से भिन्नार्थकता को उपजीव्य बनाकर पादों की आवृत्ति भी होती है। द्विसन्धानकार ने इस प्रकार के प्रयोग भी पर्याप्त किये हैं । यथा सत्यतो विभया व्यूहे समुत्पत्या महोरसा। सत्यतो विभया व्यूहे समुत्पत्या महोरहा ॥ यहाँ पूर्वार्ध की यथावत् उत्तरार्ध में आवृत्ति हुई है। किन्तु पद भिन्नार्थक हैं। आवृत्त पदों के भिन्न अर्थों को समझने के लिये सन्धिच्छेदादिपूर्वक इस पद्य को निम्न प्रकार से अन्वित किया जा सकता है- “महोरसा विभया पत्या, व्यूहे समुत्पत्य सत्यत: महोरसा, विभया, सतां समुत् आ अत: व्यूहे" । इसकी व्याख्या इस प्रकार होगी-"व्यूहे परिणीता, का? आ लक्ष्मी: केन? पत्या स्वामिना विष्णुनेत्यर्थः, कस्मात् ? अत: प्रतिविष्णुवधात्, क्व? व्यूहे रणे, कथम्भूता:? सती समीचीना, पुन: विभया विगतविधुरा, पुन: महोरसा तेजोरसा, पुन: समुत्सहर्षा, कथम्भूतेन पत्या? महोरसा विस्तीर्णवक्षसा, कया विष्णुना लक्ष्मीव्यूहे ? विभया १. द्विस,, ८.२७ २. वही, ८.२७ पर पदकौमुदी टीका ३. वही,१८.१०५
SR No.022619
Book TitleDhananjay Ki Kavya Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBishanswarup Rustagi
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year2001
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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