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________________ ८४ (ङ) वक्रोक्ति-भङ्ग (वक्रोक्ति-भङ्गिभिः) संस्कृत भाषा की संश्लेषणता अर्थात् व्याकरण की सहायता से सन्धिविच्छेद, समास और विभिन्न धातुओं और शब्दों के एक समान रूपों का योग तथा व्याकरण की प्रक्रिया से बहुत से शब्दों के नये अर्थों को प्राप्त कर सन्धानविधि और अधिक प्रभावी रूप दिखाने में समर्थ हुई । द्विसन्धान में भी इस प्रकार अनेक प्रयोग देखने में आते हैं, जिनमें समस्त पदों का विभिन्न प्रकार से विग्रह करके इच्छानुसार अर्थ किया जा सकता है । यथा सन्धान- कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना (१) सालङ्कृतिलक्ष्मणान्विता - कवि धनञ्जय द्वारा महाभारत के पक्ष में इस पद का ‘सा अलंकृतिरलंकारो लक्ष्म लक्षणं व्याकरणम् । अलंकृतिश्च लक्ष्म चालंकृतिलक्ष्म । अत्र समाहारस्याश्रयणादेकत्वं तेनान्विता' विग्रह किया गया है, जबकि रामायण-पक्ष में 'साभरणेन सौमित्रिणा युक्तेति' किया गया है । १ - (२) अजातशत्रुप्रमुखैः – महाभारत पक्ष में पद का 'युधिष्ठिरप्रमुखैः' अर्थ है, किन्तु रामायण पक्ष में 'न जाता शत्रवः प्रमुखाः संमुखा येषां तै: ' विग्रह कर 'जिसके सम्मुख शत्रु जाने का साहस नहीं करते' अर्थ किया गया है ।२ (३) अभवत्सदशरथोग्रविक्रमः - रामायण पक्ष में इसका 'स लोकप्रसिद्धो दशरथोऽधिपतिः स्वामी अभवत् । कीदृश अग्रविक्रमः इद्धशासन: इद्धं दीप्तमुत्कर्षं प्राप्तं शासनमाज्ञां यस्य सः' विग्रह हुआ है, जबकि महाभारत पक्ष में 'दशया तारुण्यपूर्णयाऽवस्थया सह वर्तते सदश: रथेनोग्रः सोढुमशक्यो विक्रम: प्रतापो यस्य स: सदश्चासौ रथोग्रविक्रमश्च स:' यह विग्रह हुआ है । ३ उपर्युक्त पदों के अतिरिक्त-कैकेयेयमुपेयः (३.४०), सर्वस्वादुर्योधनेन (३. ४२), द्रौपदिकानुजान्वितः (४. ३७), दशास्यनामोद्वहत: (५.६), दशकन्धरोत्थम् (५.२९), भरतान्वयस्य (५.३०), जरासन्धाभियोगजम् (७.२१), श्रीमत्सीतापक्रमतप्ता (८.१९), अरातिचारविद्रावणः (८.३४), विभीषणाभ्युन्नतकुम्भकर्णमुख्यैः (८.५१), दुर्योधनकामबाधाम् (८.५५), सत्यग्रेसरसीतापहारिणी (९.५), कंसमाहतमरिम् (१०.८), पूतनामादरमुक्तवृत्तिम् १. द्विस, १.५ तथा पदकौमुदी टीका २. वही, १. ८ तथा पदकौमुदी टीका ३. वही, २.१
SR No.022619
Book TitleDhananjay Ki Kavya Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBishanswarup Rustagi
PublisherEastern Book Linkers
Publication Year2001
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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