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________________ उत्तम कुळमां उत्पन्न थईने आपणे गंधन सर्प जेवा अधम न थवं माटे निश्चयतापूर्वक संयमन पालन करो. बे जातिना सर्प छे-एक गंधन अने एक अगंधन. गंधन जातिनो सर्प कोईने डस्यो होय अने जो मंत्रवादी उपचार करे तो पाछो आवीने झेर चुसी जाय अने अगंधन जातिना सर्प वादी गमे तेटलो मंत्रोपचार करे तो पण मृत्यु पामवं पसंद करे पण झेर पार्छ न चूसे. तेम हे रथनेमि ! तमोए पूर्वे जे भोगविलासा वम्या छ तेने फरी वार ग्रहण करवानी वांछामात्र पण करवी उचित नथी. राजीमतीना आवा उत्तम बोधदायक वचनथी रथनेमिए परमात्मा पासे आवी प्रायश्चित्त स्वीकार्य, रथनेमि जेवा मुनीश्वर पण ज्यां चलायमान थई गया त्यां आ काळना सामान्य साधुओनी वात ज शामाटे करवी? सव्वस्थ इस्थिवग्गंमि, अप्पमत्तो सया अवीसत्थो। नित्यरइ बंभचेरं, तब्विवरीओ न नित्थरइ ॥६७ ॥ सव्वत्येसु विमुत्तो, साहू सव्वत्य होइ अप्पवसो। सा हाइ अणप्पवसो, अज्जाणं अणुचरतो उ ॥६८ ॥ खेलपडिअमप्पाणं, न तरइ जह मच्छिआ विमोएउं । अज्जाणुचरो साहू, न तरइ अप्पं विमोएउं ॥६९ ।। [ सर्वत्र स्त्रीवर्गेऽ-प्रमत्तः सदा अविश्वस्तः । निस्तरति ब्रह्मचर्ये, तद्विपरीतो न निस्तरति ॥१७॥ सर्वार्थेषु विमुक्तः, साधुः सर्वत्रात्मवशो भवति। स भवत्यनात्मवश: आर्याया: अनुचरन् तु ॥६८ ॥ फ्लेष्यपतितमात्मनं, न शक्नोति यथा मक्षिका विमोचयितुम् । आर्यानुचरन् साधु-नं शक्नोत्यात्मानं विमोचयितुम् ॥१९॥ गाथार्थ- सर्वत्र स्त्रीवर्गनी अंदर हमेशां अप्रमत्तपणे विश्वास रहित वर्तनार साधु ब्रह्मचर्य पाळी शके छे, विपरीतपणे वर्ते तो ब्रह्मचर्य गुमावी बेसे छे. सर्व पदार्थमां ममता रहित साधु स्वतंत्र-स्वाधीन होय छे परन्तु जो ते साध्वीना पाशमां बंधाय-साध्वीना कथन प्रमाणे अनुसरे तो ते परतंत्र-सेवक बनी जाय छे. जेम मळ (श्लेष्म) मां चोंटी गयेल माखी छुटी थई शकती नथी तेम साध्वीना स्नेहपाशमां झकडायेल साधु तेमांथी मुक्त थई अन्यत्र विहार करी शकतो नथी. विवेचन-कोई शंका करतां पूछे के-स्त्रीनो परिचय वधवाथी स्त्री पुरुषने शुं करे? तेनो जवाब ए छे के-स्त्री पोते तो कंई करती नथी परन्तु पुरुष तेने देखीने चळित थाय छे. पुरुषनी लागणीओ अने चित्तवृत्तिओ चपळ होय छे; ज्यारे स्त्रीने मैथुननी अभिलाषा विशेष होय छे तेमज तेने मोहनीयकर्मनो उदय अधिक होय छे माटे शास्त्रकारोए डगले ने पगले सावचेत रहेवानो उपदेश आप्यो छे. श्राविका करतां साध्वीनी स्थिति ऊंची ने आदरपात्र छे. तेणे जिनेश्वर भगवंतनो वेष धारण श्रीगच्छाचार-पयन्ना-१८४
SR No.022586
Book TitleGacchayar Ppayanna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri, Gulabvijay
PublisherAmichand Taraji Dani
Publication Year1991
Total Pages336
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gacchachar
File Size31 MB
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