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________________ *१०० * ........श्री आचारांगसूत्रम् • काम-विजय. कलत्र का उपसर्ग हो, चलित नहीं हो सन्त। संयम में दृढ़ता करे, आतमध्यान रमन्त।।४।। अरे! श्रमण की इन्द्रियाँ, पीड़ा निज पहुँचाय। अल्प अशन अरु रूक्ष कर, मन मतंग समझाय।।५।। सब कुछ करने पर अरे, फिर भी पीड़ा पाय। शीत ताप आतापना, ग्रहण करे मुनिराय।।६।। इतना करने पर अरे, इन्द्रियाँ खूब सतायँ। विहार करे अन्यत्र ही, जहाँ न परिचय पाय।।७।। इतना करने पर अरे, इन्द्रियाँ नहीं हनन्त। अशन ग्रहण का त्याग कर, रहे सदा एकऽन्त।।८।। रे! रे! साधक समझ तू, होता देह-विनाश। फिर भी सेवन विषय का, तनिक करे मत आश।।९।। नारि-संग इच्छा करे, पाये नाना कष्ट। भव आगामी नरक हो, होता भव-भव भ्रष्ट।।१०।। लम्पट जो मानव यहाँ, पग-पग ले धिक्कार। वक्त और बेवक्त वह, खाता सबकी मार।।११।। लम्पट मानव के अरे, लेते कर-सिर काट। नाना दुख इहलोक में, रहा कष्ट अति चाट।।१२।। करे न नारी संग जो, ज्ञानवान गुणवान। रसिक कथा भी नहिं सुने, मानो बहरे कान।।१३।। तिय सेवा की भावना, स्वप्न काल नहिं रंच। रक्षा करते आत्म की, संयम हो सौ टंच।।१४।।
SR No.022583
Book TitleAcharang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri, Jinottamsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2000
Total Pages194
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size41 MB
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