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________________ श्रीदशाश्रुतस्कंधे-प्रस्तावना अर्धो जोजन जईने आवे, कारण के एकत्वपृथकत्व जे काळनी मर्यादा होय तेम रहे. अकल्पिता शरद काळवडे धारण करे. काळनी चार मासनी स्थापना काळवडे पांच पांच दिवसना आंतरे रहे. कालमां पण चोमासामां रहे. कालमां यथा असाड सुदी पूर्णिमाथी एक महिनो ने वीस दिवस गये छते कारण विशेषे रहे. . भाव ठवणा औदयिक भाव, भावोनी ठवणा क्षायिक भावनामां संक्रमण करतां बीजा भावोने वर्जवा ते भाववडे निर्जरा स्थाने रहे. भावोवडे साथे रहेला साधुओनी निर्जरा माटे वैयावच्च करे. भाव विषे पृथक्त्व नथी. अथवा क्षायोपशमिक भावे शुद्ध अध्यवसायथी वधारे ने वधारे शुद्ध अध्यवसायमां जाय. एवं तावत् द्रव्यादिमां पण समासथी कह्यं. हवे एने ज विस्तारपूर्वक कहे छे. त्यां पहेलां काल स्थापना कहे छे. शा माटे आ प्रमाणे काल ठवणामां सूत्र-सूत्रादेशे करीने प्ररूपण करवुं के काल समयादिक छे माटे प्रसंगोपात् विचारवानुं के ज्ञानी भगवंत दरेक सजीव के निर्जीव वस्तु उपर ओछामां ओछा चार निक्षेपा कहे छे. जेमके प्रभुनी मूर्ति निर्जीव छे तो पण जिनपडिमा जिनसारिखी कही छे. तेमां द्रव्य-नाम-स्थापना अने भाव ए चार निक्षेपा कराय छे. जिनेश्वरनो आत्मा ते द्रव्य जिन, तेमनुं नाम ए नामजिन, तेमनी प्रतिमा ए स्थापनाजिन, अने भावजिनपणुं तो समवसरणमां भगवान पूर्व अवस्थामां राजमान हता, ते संबंधी भावना भाववी ते . एवी रीते अनंत ज्ञानी जिनेश्वर भगवंतोए कालने एटलो बधो बखाण्यो छे के 'गोयमा, समयमपि मा पमायए' हे गौतम, एक समय मात्र पण प्रमाद करीश नहि, अर्थात् नकामो जवा दईश नहि. विचार करो के केटलो बधो काळनो महिमा छे. भूतकाळ अनंता पुदगलंपरावर्तनो गया पण आत्मशुद्धि न थई, एवा काल साथे आपणे संबंध कयो ? ए स्वाभाविक प्रश्न उपस्थित थाय. संबंध एटलो ज छे के जे समयमां आत्माए पोतानी शुद्धि करी ते काल पोताना माटे आदेयरूपे कल्याण करनारो थयो . कोई पण कार्यनी सिद्धिमां पांच कारणो जणाव्यां छे. तेमां काळ पण एक कारण छे. तेथी काळ नकामो छे एम न समजवं. जेमके भूतकालमां अनंता जीवो साथे अनंता संबंधो कर्या पण आपणुं कल्याण करनारा न थया तेथी ते जीवो साथ आपणे शुं ? पण वर्तमान काळमां जे जीवे आपणने मोक्षमार्ग देखाड्यो ते जीव आपणो अनंत उपकारी छे. तेवी ज रीते काळनो पण महिमा छे. वर्तमानकाळ एक समयनो होवाथी बाकी भूत-भविष्य विकल्प Đãññd XIX
SR No.022580
Book TitleDashashrut Skandh Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandrasuri, Abhaychandravijay
PublisherJain Shwetambar Murtipujak Sangh
Publication Year2007
Total Pages174
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size13 MB
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