SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्तमी दशानी विगत, पर्युषणा कल्प 'परियायवत्थवणा पद' आलोयण वंदनकादिने विषे छे. जेम रत्नाधिकने वंदन करतो होय अने पोते अजाण होय तो तेमने दीक्षा पर्याय पूछे के तमारी छेदोपस्थापनाने केटली पज्जोसणा गई ? जेथी ऋतुबद्ध द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव पर्यायोने वर्जीने कहे एवाज अन्य द्रव्यादि पर्यायो वासास्ते आचरे तेने 'पज्जोसमणा' कहे छे. तेथी उपरोक्त वासापज्जोसमणा ज साधु पर्यायमां गणाय. ते 'पज्जोसमणा' एवं सर्व सामान्य पूर्व रीतिए साधु मुनिराजो चोमासामां एक ठेकाणे रहे छे. तेथी 'परिवसणा' सर्व दिशाओमां न भमे तेने 'पज्जुसणा' कहे छे. वर्षाऋतुमां एक जग्याए चार महिना वसे ते 'वासावास', निर्व्याघाते करी चातुर्मास क्षेत्रमा प्रवेश करे ते प्रथम समोसरण. ऋतुबद्ध करी अन्य मर्यादा स्थापे ते ठवणा. ऋतुबद्ध करी एक एक मासनो क्षेत्र अवग्रह ते ज्येष्ठ अवग्रह. आ पदोमां व्यंजने करी, विविध प्रकार छे. पण अर्थथी नथी. ए पदोमांथी एक ठवणा नामे ग्रहण करीने स्थापना निक्षेपो करवो. नाम ठवणा कहेवाथी नामनिक्षेपो जाणवो. स्थापनानिक्षेप छ प्रकारे जाणवो. द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव-स्वामित्वकर्ण ए छ भेद छे. द्रव्य ठवणा जाणकारनं शरीर अने भव्य शरीरने द्रव्यनिक्षेप जेटला द्रव्योनो उपभोग करे अने तेटला त्याग करे. उपभोग करवा लायक तृणडगल-राख-मल्लकादि. त्याग करवा लायक सचित्तादिक त्रण...(१) सचित्तचोमासामां शिष्य न करवो (२) अचित्त-वस्त्रादिने ग्रहण न करे, वली सउपधिक शिष्यने ग्रहण न करे. क्षेत्र ठवणा-पांच गाउ सुधी जाय आवे अने कारणे पांच जोजन सुधी जाय आवे. कालस्थापना-चार महिना त्यां रहेवू कल्पे. __ भाव ठवणा क्रोधादिनो त्याग करे, भाषासमिति युक्त रहे, एमां स्वामित्वादि विकल्पो करवा. स्वामित्व संबंध. स्वामित्व द्रव्यमां एकत्व पृथकत्व भाववं. क्षेत्रमां-कालमां जेम के द्रव्यनी स्थापना-द्रव्योनी स्थापना. द्रव्यवडे-द्रव्योवडे स्थापना तथा द्रव्यमां-द्रव्योमां स्थापना. द्रव्यनी स्थापना जेम कोई एक संथारो ग्रहण करे. द्रव्योनी स्थापना जेम त्रण पडो सहित ग्रहण करे. द्रव्यवडे जेम चोमासाना चारे मास उपवास करे अने पारणे आंबील करे. द्रव्योवडे जेम महिनाना छ उपवास करी आंबीलथी पारणं करे, एवं निर्विकृति विगेरे द्रव्योमां जेम एक अंगवाळा पाटीआ उपर रहे. द्रव्योमा जेम बे कपडां, बे कांबल अने संथाराने धारण करे. क्षेत्रस्वामित्व यथा एक ज गामनो उपयोग करे. क्षेत्रोमां यथा ग्रामादि नजदीक रहे. परा आदिमां वास करे ते क्षेत्र पृथकत्व स्वामित्व. करणमां एकत्व-पृथकत्व नथी, अधिकरणमां एक क्षेत्र रहे, परन्तु मर्यादाए ఉండి తీయం తంతుయంతం XVIII అంతీయతతతతతంతు
SR No.022580
Book TitleDashashrut Skandh Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandrasuri, Abhaychandravijay
PublisherJain Shwetambar Murtipujak Sangh
Publication Year2007
Total Pages174
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy