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________________ सव्वे तिरिक्खजोणिया सभी तिर्यंचयोनिक जीव सव्वे नेरइया सभी नारक जीव सव्वे मणुआ सभी मनुष्य सव्वे देवा सभी देवता सव्वे पाणा ये सभी प्राणी परमाहम्मिया परम सुख की इच्छा रखनेवाले हैं. एसो यह खलु निश्चय से छठ्ठो छठवां जीवनिकाओ जीवों का समुदाय तसकाउ त्ति त्रसकाय इस नाम से पवुच्चइ कहा जाता है । – द्विन्द्रिय, त्रिन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय इन सभी जीवों का समुदाय "सकाय" कहलाता है और ये सभी जीव सुखपूर्वक जीने की इच्छा रखते हैं, ऐसा जिनेश्वर भगवन्तों ने फरमाया है। “छ जीव निकाय की रक्षा हेतु प्रतिज्ञा" इच्चेसिं छण्हं जीवनिकायाणं नेव सयं दंडं समारंभिज्जा नेवऽन्नेहिं दंडं समारंभा विज्जा दंडं समारंभंतेऽवि अन्ने न समणुजाणिज्जा । जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करंतं पि अन्नं न समणुजाणामि तस्स भंते! पक्किमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । शब्दार्थ — इच्चेसिं ऊपर कहे हुए छण्हं छठवें जीवनिकायाणं त्रसकाय का दंड संघट्टन, आतापन आदि हिंसा रूप दंड का सयं खुद नेव समारंभिज्जा आरंभ नहीं करे अहिं दूसरों के पास दंडं संघट्टन आदि नेव समारंभाविज्जा आरंभ नहीं करावे दंडं संघट्टन आदि समारंभंते आरंभ करते हुए अन्ने वि दूसरों को भी न समणुजाणेज्जा अच्छा नहीं समझे. ऐसा जिनेश्वरों ने कहा, इसलिये मैं जावज्जीवाए जीवन पर्यन्त तिविहं कृत, कारित, अनुमोदित रूप आरंभ को मणेणं मन तिविहं कृत, कारित, अनुमोदित रूप आरंभ को मणं मन वायाए वचन काएणं काया रूप तिविहेणं तीन योग से न करेमि नहीं करूं न कारवेमि नहीं कराऊं करतं करते हुए अन्नं पि दूसरों को भी नसमणुजाणामि अच्छा नहीं समझं. भंते हे भगवन् । तस्स भूतकाल में किये गये आरंभ का पडिक्कमामि प्रतिक्रमण रूप आलोयण करूं निंदामि आत्म- साक्षी से निंदा करूं गरिहामि गुरु साक्षी से करूं अप्पाणं पापकारी आत्मा का वोसिरामि त्याग करूं । — जिनेश्वर फरमाते हैं कि साधु स्वयं त्रसकाय जीवों का संघट्टन आतापन आदि आरंभ नहीं करे, दूसरें से नहीं करावे और करनेवालों को अच्छा भी नहीं समझे । जीवन पर्यन्त साधु यह प्रतिज्ञा करे कि - त्रसकाय का आरंभ मैं नहीं करूंगा, दूसरों से नहीं कराऊंगा और करनेवालों का अनुमोदन भी नहीं करूंगा। और जो आरंभ हो चूका है उसकी आलोचना, निन्दा व ग कर आरंभकारी आत्मा का त्याग करता हूं। १ - त्रस और स्थावर जीवों के विशेष भेद अस्मल्लिखित 'जीवभेद-निरूपण' नामक किताब से देख लेना चाहिये । २) गर्हा - निंदा, घृणा जुगुप्सा ओघनियुक्तिटीकायाम् श्री दशवैकालिक सूत्रम् / २२
SR No.022576
Book TitleDashvaikalaik Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages140
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashvaikalik
File Size12 MB
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