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________________ श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ ८२५ अपने स्वभाव के अनुसार तीव्र और मन्द फल देती है । जैसे - मतिज्ञानावरणीय कर्म का श्रुतज्ञानावरणीय कर्म में जब संक्रमण होता है, तब वह श्रुतज्ञानावरणीय अनुभाग (रस) वाली हो जाती है, किन्तु उत्तरप्रकृतियों में भी कितनीक ऐसी प्रकृतियाँ हैं कि जिनका स्वजातीय में भी संक्रमण नहीं होता है। जिस तरह दर्शनमोहनीय और चारित्र मोहनीय का परस्पर संक्रमण नहीं होता है, इसी तरह आयुष्यकर्म की उत्तरप्रकृतियों का संक्रमरण एक-दूसरे में नहीं होता है । इसके सम्बन्ध में कहा है कि ५० ] ' मोह दुगाउगमूल, पयडीण ना परोप्परं मि संकमण ॥' [कम्पयड़ी संक्रमणाधिकारे गाथा - ३] संक्रमण, उद्वर्तन, अपवर्तनादि अधिकार कर्मप्रकृति ग्रन्थ के वृत्ति टीका की गुजराती व्याख्या में विस्तारयुक्त कहा है । अशुभ तथा शुभ प्रकृति का तीव्ररस क्रम से संक्लेश और विशुद्ध परिणाम रूप होता है तथा मन्द रस इससे विपरीतपने होता है । अनुभाग द्वारा भोगे हुए कर्म जीव आत्मप्रदेशों से भिन्न होते हैं । वे जीव- श्रात्मा के साथ संलग्न नहीं रहते हैं । उसी कर्मनिवृत्ति को निर्जरा कहते हैं, कर्मों की निर्जरा जैसे कर्म फल वेदने से अर्थात् भोगने से होती है वैसे तपोबल से भी होती है। और वे कर्म आत्मप्रदेशों से अलग पृथक् हो जाते हैं । सूत्र में जो 'च' शब्द है वह यही बात सूचित करता है । इसका स्वरूप श्रागे श्रध्याय १० सूत्र ३ में कहेंगे ।। ८-२४ ।। * प्रदेशबन्धस्य वर्णनम् मूलसूत्रम् नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात् सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाढस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेषु श्रनन्तानन्तप्रदेशाः ॥ ८-२५ ॥ * सुबोधिका टीका * नामकर्मणोः कृते सर्वात्मप्रदेशे मन श्रादीनां व्यापारात् सूक्ष्मं तेज श्राकाशप्रदेशमवगाहस्थिताः, स्थिराः सन्त अनन्तानन्त प्रदेशवन्तः कर्मपुद्गलाः सर्वपाशर्वाद् बद्धायन्ति । नामप्रत्ययिक - नामकर्मणोः कृते पुद्गलाः बद्ध्यन्ते । * प्रश्नम् - कस्माद् बद्ध्यन्ते ? प्रत्युत्तरम् - मनसो वचसस्तथा कायायाः व्यापारविशेषाद् बद्धयन्ते ।
SR No.022535
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year2001
Total Pages268
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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