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८।२४ ] अष्टमोऽध्यायः
[ ४६ फल देने के बाद कर्मों का क्या होता है ? उसका निरूपणके मूलसूत्रम्
ततश्च निर्जरा ॥८-२४ ॥
* सुबोधिका टीका * ततश्च अनुभावात् कर्मनिर्जरा भवतीति ।
* सूत्रार्थ-विपाक हो जाने के बाद उन कर्मों की निर्जरा हो जाती है। अर्थात्-जीव-प्रात्मा से सम्बन्ध छोड़कर वे झड़ जाते हैं । ८-२४ ।।
ॐ विवेचनामृत ॥ कर्मों के फल मिलने के बाद कर्मों को निर्जरा होती है। निर्जरा अर्थात्-कर्मों का जीवमात्मप्रदेशों से छूट जाना।
निर्जरा दो प्रकार की होती है-(१) विपाक निर्जरा, तथा (२) अविपाक निर्जरा।
* विपाक निर्जरा-जैसे आम्रवृक्ष पर रही हुई केरी काल पाकर स्वाभाविक रीति से पकती है, वैसे ही कर्म अपनी स्थिति का परिपाक होने से स्वाभाविकपने उदय में आकर अपना फल देकर झड़ जाते हैं। यह निर्जरा विपाक निर्जरा कही जाती है ।
* अविपाक निर्जरा-जैसे केरी आदि को तृण-घास आदि में रख करके शीघ्र पका लिया जाता है, वैसे ही कर्म की स्थिति का परिपाक नहीं हुमा हो, तो भी तप इत्यादिक से उसकी स्थिति कम-न्यून करके और उसे शीघ्र ही उदय में ला करके फल देने के लिए सन्मुख करने से जो निर्जरा होती है, वह अविपाक निर्जरा कही जाती है ।। ८-२४ ।।
0 विशेष सारांश-उपर्युक्त २२-२३-२४ इन तीनों सूत्रों का विशेष सारांश यह है कि, प्रकृतिबन्ध होते समय ही उसके कारणभूत काषायिक परिणामों की तीव्रता-मन्दता के अनुसार उन प्रकृतियों में तीव्रता तथा मन्दता रूप फल देने की शक्ति प्राप्त होती है। उसको अनुभाव या अनुभाग कहते हैं, और उसके निर्माण को अनुभाग बन्ध कहते हैं। इसको कर्मप्रकृति ग्रन्थ में अविभाग, वर्गणा, स्पर्घकादि १४ द्वार करके बहुत विस्तारपूर्वक समझाया है, तथा पाँचवें कर्म ग्रन्थ में भी इसका संक्षेप में वर्णन है।
[गाथा ६५ से ७४] * स्थितिबन्ध की परिपक्व अवस्था होने पर अनुभाग बन्ध फलप्रद होता है, वह भी स्वकर्मनिष्ठ। जैसे-ज्ञानावरणीय कर्म का अनुभाग (रस) अपने स्वभावपने तीव्र या मंदरूप से ज्ञान को ही प्रावृत करने वाला होता है, परन्तु अन्य कर्म दर्शनावरण प्रादि फल स्वभाव को प्राप्त नहीं होता। इसी भांति दर्शनावरणीयकर्म का अनुभाग दर्शन शक्ति को ही तीव्र अथवा मन्दपने आच्छादित करता है, किन्तु अन्य ज्ञानादि कर्मप्रकृतियों को आच्छादित नहीं करता, यह नियम मूल प्रकृतियों के लिए है। उत्तरप्रकृति अध्यवसाय के बल से स्वजातीय रूप में बदल जाती है, तथा वह