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________________ १।२६ ] प्रथमोऽध्यायः [ ५७ के विवेचन के ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञान अविशुद्ध और प्रतिपाती है तथा विपुलमतिमन:पर्ययज्ञान विशुद्ध और अप्रतिपाती है। ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञान से विपुलमतिमनःपर्ययज्ञान विशुद्धि और अप्रतिपात इन दोनों कारणों से विशिष्ट है । कारण कि ऋजुमति का विषय अल्प है और विपुलमति का विषय उससे अत्यधिक है। ऋजमति मनःपर्ययज्ञान वाला जितने वस्तू-पदार्थ को जितनी भी सूक्ष्मता से जान सकता है, उन ही वस्तु-पदार्थ को विविध प्रकार से विशिष्ट गुण-पर्यायों के द्वारा अति अधिक सूक्ष्मता युक्त विपुलमतिमन:पर्ययज्ञान वाले जान सकते हैं। जैसे-ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञान वाला जीव 'अमुक व्यक्ति ने घट यानी घड़े का विचार किया, ऐसा सामान्य रूप से जाने । तब विपुलमतिमनःपर्यय वाला जीव 'अमूक व्यक्ति ने राजस्थान-मरुधर-जोधपूर नगर के, अमूक कलर-रंग के, अमुक प्राकृति-आकार के, अमुक स्थल में रहे हुए उस ही घट-घड़े का विचार किया' इत्यादि विशेष रूप से जाने तथा ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञान प्राप्त किया हुआ चला भी जाता है, किन्तु विपुलमतिमनःपर्ययज्ञान प्राप्त करने के पश्चाद् नहीं ही जाता है। तदुपरान्त विपुलमतिमन:पर्ययज्ञान उत्पन्न होने के बाद अवश्यमेव पंचम केवलज्ञान उत्पन्न होता ही है। उसी मनुष्यभव में मोक्ष की प्राप्ति अवश्य ही होती है। इसीलिये यह विपुलमतिमनःपर्ययज्ञान ऋजूमतिमनःपर्ययज्ञान से विशुद्ध और अप्रतिपाती अवश्य ही है ।।२५।। * अवधि-मनःपर्यययोः भेदस्य हेतवः * विशुद्धि-क्षेत्र-स्वामि-विषयेभ्योऽवधिमनःपर्ययोः ॥ २६ ॥ * सुबोधिका टीका : अवधि-मनःपर्ययज्ञानयोः विशुद्धिकृतः क्षेत्रकृतः स्वामिकृतो विषयकृतश्च अनयोविशेषो भवति । तद्यथा-अवधिज्ञानाद् मनःपर्ययज्ञानं विशुद्धतरं वर्त्तते । यदवधिज्ञानी यावन्ति रूपीणि द्रव्याणि जानीते तानि सर्वाणि तद् मनःपर्ययज्ञानी विशुद्धतराणि मनोरहस्यगतानि अवश्यमेव जानीते इति । विशुद्धिः (शुद्धता), क्षेत्र (क्षेत्रप्रमाणं), स्वामि (अधिपतिः), तथाविषयः । एतैः चतुर्भिः प्रकारैः अवधिज्ञाने मनःपर्ययज्ञाने च विशेषता, अर्थात् भिन्नताऽस्ति । अवधितः मनःपर्ययः विशुद्धो भवति । मनःपर्ययज्ञाने न तिच्र्छ सार्द्धद्वयद्वीपपर्यन्तं तथा समुद्रद्वयप्रमाणं च, ऊर्ध्वं ज्योतिष्कपर्यन्तं, अधःसहस्रयोजनपर्यन्तं क्षेत्र पश्यति; किन्तु अवधिज्ञानेन असङ्ख्यलोकं पश्यति । अर्थात्मनःपर्ययज्ञानस्य क्षेत्रादवधिज्ञानस्य क्षेत्र विशालमस्ति । अवधिज्ञानस्य क्षेत्र अङ्गुलस्यासङ्खयातमाविभागाद् प्रारभ्य सम्पूर्ण लोकपर्यन्तं भवति । मनःपर्ययज्ञानस्य क्षेत्रमात्र सार्द्धद्वयद्वीपपर्यन्तं-समुद्रद्वयप्रमाणं च मनुष्यक्षेत्रे स्थितसंज्ञीपञ्चेन्द्रियेषु मनुष्यतिर्यञ्च-देवानां जीवानां मनसां विचारान् जानीते एव । क्षेत्रकृतश्चानयोः प्रतिविशेषः । किञ्चान्यत्-स्वामिकृतश्चानयोः प्रतिविशेषः । अवधिज्ञानं संयतस्य साधोः असंयतस्य
SR No.022532
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1994
Total Pages166
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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