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________________ ५६ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्र [ ११२५ है। बाद में अभ्यास की प्रबलता से अनुमान करता है कि इसने अमुक वस्तु-पदार्थ का चिन्तन किया है। क्योंकि उस समय चिन्तित वस्तु-पदार्थ का आकार-प्राकृति युक्त चेहरा अवश्य होता है। जिसके मनःपर्ययज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम हुअा है, ऐसे उस साधु को यह एक प्रति विशिष्ट और क्षायोपमिक प्रत्यक्षज्ञान प्राप्त होता है; जिसके निमित्त से वह साधु मनुष्य-लोकवर्ती मनःपर्याप्ति के धारण करने वाले पंचेन्द्रिय प्राणी मात्र के त्रिकालवर्ती मनोगत विचारों को इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना ही जान सकता है। इधर विषयभेद की अपेक्षा से इस मनःपर्यय-मनःपर्यवज्ञान के दो भेद कहे हैं। उनमें जो सामान्य रूप से विषय को जाने उसको 'ऋजुमति मनःपर्यय-मनःपर्यवज्ञान' कहते हैं तथा जो विशेष रूप से विषय को जाने उसको 'विपुलमति मनःपर्यय-मनःपर्यवज्ञान' कहते हैं। अर्थात्-ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानधारी केवल वत्तेमानकालवत्ती जीव-प्रात्मा के द्वारा चिन्त्यमान पयोयो को ही सामान्य रूप से जान सकते हैं। तथा विपुलमतिमनःपर्ययज्ञान वाले व्यक्ति त्रिकालवर्ती मनुष्य के द्वारा चिन्तित, अचिन्तित और अर्ध चिन्तित ऐसे तीनों प्रकार के वस्तु-पदार्थों के पर्यायों को विशेष रूप से जान सकता है। मनःपर्ययज्ञान के ये दोनों ही भेद अतीन्द्रिय हैं और दोनों का विषय-परिच्छेदन मनःपर्ययज्ञान को जानना भी समान ही है। फिर भी इन दोनों में विशेषता किस प्रकार की है ? इसका प्रत्युत्तर अब आगे आने वाले सूत्र में कहते हैं ।।२४।। * ऋजु-विपुलमत्योः विशेषतायाः हेतवः * विशुद्धचप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः ॥ २५ ॥ सुबोधिका टीका * विशुद्धिकृतश्चाप्रतिपातकृतश्च अनयोः प्रतिविशेषः । तद्यथा-ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानाद् विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानं विशुद्धतरं वर्त्तते । तथाऽन्यदपि कारणमस्ति । ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानं उत्पन्नत्वादपि प्रतिपतति भूयः, किन्तु विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानं तु न प्रतिपततीति । विशुद्धिः (शुद्धता), अप्रतिपातिः (आगतं सत् यन् न गच्छति) एतद् कारणद्वयात् तयोर्भेदोऽस्ति । अर्थाद्-ऋजुमतेविपुल-मतिः अतिशुद्धा भवति । अत्र इत्थं विज्ञेयं ऋजुमतिः आगच्छति गच्छति च, किन्तु विपुलमतिः आगच्छति चेद् न गच्छतीत्यर्थः । ॐ सूत्रार्थ-ऋजुमति और विपुलमति इन दोनों में विशेषता यह है कि-एकदूसरे से विशुद्ध और पतन का अभाव है। अर्थात्-ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञान से विपुलमतिमनःपर्ययज्ञान विशुद्धि और अप्रतिपात (पुनः पतन का अभाव) है। इन दोनों कारणों से विपुलमतिमनःपर्ययज्ञान ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञान से विशिष्ट हैं ॥ २५ ॥
SR No.022532
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1994
Total Pages166
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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