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________________ ५८ ] श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे [ १।२६ जीवस्य संयतासंयतयोः श्रावकस्य चापि । तथा सर्वगतिषु जीवानां भवति । मनःपर्ययज्ञानं तु मनुष्यसंयतस्यैव भवति, नान्यस्यैव । ___ अर्थात्-मनःपर्ययज्ञानस्य स्वामी श्रमणः संयत एव । अवधिज्ञानस्य स्वामी संयतोऽसंयतो वा चतुर्गतिमानं भवितुं शक्नोति । मनःपर्यायेण संज्ञिनां मनसि परिणतमपि द्रव्यं-ज्ञातु शक्नोति । अवधिना तु समस्तरूपी-रूप-रस-गन्ध-स्पर्शवद् द्रव्यं दृश्यते । पुनः अवधिज्ञानेन मनःपर्ययज्ञानस्य विषय-निबन्धः अनन्तभागे कथितोऽस्ति । अवधिज्ञानापेक्षया मनःपर्ययज्ञानं विशेषशुद्धं भवति । यावन्ति रूपीद्रव्याणि अवधिज्ञानी जानाति तेषां अनन्तभागे मनसा परिणतं द्रव्यं मनःपर्ययज्ञानी शुद्धरूपेण विजानाति । अवधिज्ञानस्य विषयः अङ्गुल्याऽसङ्ख्यातभागमारभ्य सकललोकक्षेत्रपर्यन्तं भवति । तथा मनःपर्ययज्ञानवतां विषयः सार्द्धद्वयद्वीपपर्यन्तमेव वर्त्तते । अवधिज्ञानं संयतानां असंयतानां च चतुर्गतिमतां जीवानां भवति । मनःपर्ययज्ञानं तु संयतस्य अर्थात् चारित्रवतः एव मनुष्यस्य भवति । सर्वरूपीद्रव्यस्य तथा तस्य कतिपयपर्यायाणां च ज्ञानं अवधिज्ञानस्य विषयो भवति । तथा मनःपर्ययज्ञानस्य विषयः सर्वरूपीद्रव्यस्य अनन्ततमभागस्य द्रव्यस्य अर्थाद् मनोद्रव्यं तस्य पर्यायं च ज्ञातु योग्यमस्ति ।। २६ ।। ॐ सूत्रार्थ-अवधिज्ञान में और मनःपर्ययज्ञान में विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय इन चार कारणों से विशेषता-भिन्नता है ।। २६ ।। 9 विवेचन ॥ अवधि और मनःपर्यय ये दोनों ज्ञान प्रमाणपने अपूर्ण रूप से समान होते हुए भी विशेष रूप से भिन्न हैं। कारण कि-इन दोनों ज्ञानों में विशुद्धिकृत, क्षेत्रकृत, स्वामीकृत और विषयकृत भेद है। जिसके द्वारा विशेष रूप में अधिकतर पर्यायों का परिज्ञान हो सके, ऐसी निर्मलता-विमलता को 'विशुद्धि' कहते हैं । 'क्षेत्र' आकाश का नाम है । जिनको वह ज्ञान हो उनको उस विवक्षित ज्ञान का स्वामी समझना तथा ज्ञान के द्वारा जो वस्तु-पदार्थ जाना जाय, उसको हो विषय कहा जाता है। इन चारों ही कारणों की अपेक्षा अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान में अन्तर है। (१) विशुद्धि--अवधिज्ञान की अपेक्षा मनःपर्ययज्ञान की विशुद्धि विशेष रूप में अधिक होती है । जितने रूपी द्रव्यों को अवधिज्ञानी जान सकता है, उन द्रव्यों को ही मनःपर्ययज्ञानी विशेष अधिक स्पष्ट रूप में मनोगत होने पर भी जान सकता है। अर्थात्-अवधिज्ञान से मनःपर्ययज्ञान अपने विषय पदार्थ को अत्यन्त ही स्पष्ट रूप से जानता है, इसलिए यह मनःपर्ययज्ञान विशुद्धतर है। यह विशद्धि की अपेक्षा अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान में अन्तर है। (२) क्षेत्र-मन:पर्ययज्ञान के क्षेत्र से अवधिज्ञान का क्षेत्र विशाल है। अवधिज्ञानी का क्षेत्र अंगुल के असंख्यातवें भाग से लेकर सम्पूर्ण लोक पर्यन्त है। अर्थात्-सूक्ष्म निगोदिया जीव लब्धि
SR No.022532
Book TitleTattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tikat tatha Hindi Vivechanamrut Part 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaysushilsuri
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1994
Total Pages166
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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