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________________ प्रथमाध्याय: [ १६ द्वयोः क्षायोपशमिकः प्रज्ञप्तस्तद्यथा-मनुष्याणाश्च पन्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाश्चैव । पड्विधमवधिज्ञानं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-अनुगामिकः, अननुगामिक :, वर्द्ध मान :, हीयमान :, प्रतिपाती, अप्रतिपाती, प्रश्न-क्षायोपशमिक अवधिज्ञान क्या होता है ? उत्तर-क्षायोपशमिक दो के ही होता है-मनुष्यों के और तिर्यश्चों के। प्रश्न-यह क्षायोपशमिक किस कारण से कहलाता है ? उत्तर-पके हुए अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षय से और विपाक को प्राप्त न होने वाले अवधिज्ञानावरणीय कर्म के उपशम से क्षायोपशमिक अवधिज्ञान उत्पन्न होता है । क्षायोपशमिक अवधिज्ञान दो के ही होता है-मनुष्यों के तथा पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के। यह अवधिज्ञान छै *प्रकार का होता है-अनुमामिक, अननुगामिक, वर्द्धमान, हीयमान्, प्रतिपाती और अप्रतिपाती। संगति-आगम बिलकुल स्पष्ट है, उसमें विशेष कथन है । सूत्र में तो सूक्ष्म कथन हुआ ही करता है। "ऋजुविपुलमती मनःपर्ययः॥" १. २३. मणपजवणाणे दुविहे पएणत्ते, तं जहा-उज्जुमति चेव विउलमति चेव ॥ स्थानांगसूत्र स्थान २ उद्दे० १, सू०७५. छाया- मन:पर्ययज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा - अजुमतिश्चैव विपुल मतिश्चैव। भाषा टीका-मन:पर्यय ज्ञान दो प्रकार का होता है-ऋजुमती और विपुलमति । "विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः॥” १. २४. * पन्नवणासूत्र पद ३३वें में अवस्थित और अनवस्थित भेद भी आते हैं।
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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