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________________ २० ] तत्त्वार्थ सूत्र जैनाऽऽगमसमन्वय : उज्जुमईणं अणंते अांतपए लिए बंधे जाणइ पासइ ते चैव विउलमई, अब्भहियतराए विउलतराए विसुद्वतराए वितिमिरतराए जाइ पासइ, इत्यादि ॥ छाया- दिसूत्र सूत्र १८. ऋजुमति : अनन्तान अनन्तप्रदेशकान स्कन्धान जानाति पश्यति तांश्चैव विपुलमति:, अभ्यधिकतरं विपुलतरं विशुद्धतरं वितिमि - रतरं जानाति पश्यति, इत्यादि । भाषा टीका - ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान अनन्तप्रदेश वाले अनन्त स्कन्धों को जानता और देखता है । विपुलमति भी उन सबको जानता और देखता है। किन्तु यह उससे बड़े, अधिक, विशुद्धतर तथा अधिक निर्मल को जानता और देखता है । । संगति — सूत्रकार का कथन है कि विपुलमति मन:पर्ययज्ञान ऋजुमति की अपेक्षा अधिक विशुद्ध है तथा अप्रतिपाती होता है । चरित्र से न गिरने को अप्रतिपाती कहते हैं । अर्थात् विपुलमति मन:पर्यय ज्ञान प्राप्त करने पर उपशम श्रेणि न बांधकर क्षपक श्रेणि पर चढ़ता है और क्रमशः चार घातिया कर्मों को नष्ट कर मोक्ष प्राप्त करता है । सारांश यह है कि विपुलमति मन:पर्यय ज्ञान वाला चारित्र से कभी नहीं गिर सकता । अतएव उसको अप्रतिपाती कहा है। जब कि ऋजुमति मन:पर्यय ज्ञान वाले की चारित्र से गिरने की आशंका हो सकती है। आगम में इन दोनों में विशुद्धि का ही भेद माना है । प्रतिपात से वह सहमत नहीं है। जान पड़ता है कि अप्रतिपाती सिद्धान्त मतान्तर सिद्धान्त है । “विशुद्धिक्षेत्रस्वामिविषयेभ्यो ऽवधिमनःपर्यययोः।” १. २५. • इड्ढीपत्त अपमत्त संजय सम्मदिट्ठि पज्जतग संखेज्जवासाउ कम्मभूमि गब्भवक्कंति मणुस्साणं मणपज्जवनाणं समुप्पज्जइ ।
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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