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प्रथमाध्याय:
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ज्ञान दो प्रकार का कहा गया है-प्रत्यक्ष और परोक्ष ।।
प्रत्यक्ष ज्ञान भी दो प्रकार का कहा गया है केवल ज्ञान और नोकेवलज्ञान । नोकेवलज्ञान भी दो प्रकार है-अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान ।
परोक्षज्ञान दो प्रकार का कहा गया है-श्राभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान ।
संगति-सूत्रकार की अपेक्षा आगमों में सदा ही विस्तार से वर्णन किया गया है । सूत्रकार केवल ज्ञान को ही प्रमाण मानते हैं। किन्तु आगम ने ज्ञान, दर्शन और चारित्र तीनों को ही प्रथक २ प्रमाण माना है। अनेकान्त नय को मानने वाले जैनधर्म की यह कैसी उत्तम सुन्दरता है। प्रमाण रूप में ज्ञान के भेदों में आगम और सूत्र में कुछ भी अन्तर नहीं है । आगम में एक सुन्दरता विशेष है, वह हैं प्रत्यक्ष के दो भेद-केवलज्ञान
और नोकेवलज्ञान । क्योंकि जैन शास्त्र के अनुसार निश्चय नय से तो केवलज्ञान ही प्रत्यक्ष हो सकता है । अवधि और मनः पर्ययज्ञान वास्तव में नोकेवलज्ञान ही हैं । अतः यह निश्चयनय से नहीं, वरन् सद्भूत व्यवहार नय से प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। प्रत्यक्ष के क्षेत्र को विधर्मियों की दृष्टि से सदा बढ़ाने की आवश्यकता पड़ती रहो । यहां तक कि कालान्तर में परोक्षज्ञान मति ज्ञान के एक रूप को भी व्यवहारनय से संव्यवहारिक प्रत्यक्ष कह कर मानना पड़ा । अतः यहां सूत्रकार और आगम में कुछ भी अन्तर नहीं है। "मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध
इत्यनान्तरम्" ॥ ईहाअपोहवीमंसामग्गणा य गवेसणा। सन्ना सई मई पन्ना सव्वं आभिणिकोहिअं॥
नन्दिसूत्र प्रकरण मतिज्ञानगाथा ८० छाया- ईहाऽयोहविमर्शमार्गणाः च गवेषणा ।
संज्ञा स्मृतिः मतिः प्रज्ञा सर्व आभिनिबोधिकम् ॥ भाषा टीका-ईहा, अपोह, विमर्श, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, स्मृति, मति, और प्रज्ञा यह सब आभिनिबोधिक ज्ञान ही हैं।
संगति-आगम वाक्य और सूत्र में मति, स्मृति, संज्ञा, और अभिनिबोध तो दोनों
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