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________________ १२] तत्वार्थ सूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय : जगह मिलते हैं । श्रागम के शेष वाक्यों का स्वरूप एक प्रकार के विचार करने का है। क्यों कि ' ईहनमीहा' जानने की विशेष इच्छा करना ईहा, विशेष तलाश करना अपोह, विशेष विचारना विमर्श तथा विशेष तलाश करना मार्गणा कहलाता है। किसी वस्तु के ऊपर ' चिन्तनम् ' चिन्ता करना - विचार करना चिन्ता कहलाता है। अतएव जान पड़ता है कि सूत्रकार ने चिंता पद से उपरोक्त सब शब्दों को प्रगट किया है। आगमवाक्य में विशेष कथन होने के कारण प्रज्ञा शब्द अधिक है, किन्तु वह भी मति का ही पर्याय वाची है। 'तदिन्द्रियाऽनिन्द्रियनिमित्तम् ॥” १. १४. से किं तं पच्चक्खं ? पच्चक्खं दुविहं पण्णत्तं तं जहा - इन्दियपच्चक्खं नोइन्दियपच्चक्खं च । " 66 नन्दसूत्र ३, अनुयोगद्वार १४४, छाया- अथ किं तत् प्रत्यक्षं १ प्रत्यक्षं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा - इन्द्रियप्रत्यक्षं नोइन्द्रियप्रत्यक्षश्च ॥ प्रश्न - वह प्रत्यक्ष क्या है ? उत्तर- वह प्रत्यक्ष दो प्रकार का है - इन्द्रियप्रत्यक्ष और नोइन्द्रियप्रत्यक्ष । संगति - सूत्र में मतिज्ञान के उत्पन्न होने के कारण बतलाये गये हैं कि वह मतिज्ञान इन्द्रिय (पांच) और अनिन्द्रिय ( मन ) से उत्पन्न होता है । फिर यही है कारण मतिज्ञान के ३३६ भेदों में गिन लिये गये हैं । आगम ने कारण विविक्षा न देकर भेदविविक्षा से वही कथन किया है । यह ऊपर दिखला दिया गया है कि मतिज्ञान को (सांव्यवहारिक ) प्रत्यक्ष भी कहा जाने लगा था । " अवग्रहेहावायधारणाः ॥ " १. १५. से किं तं सुनिस्सिमं ? चउव्विहं पण्णत्तं तं जहा 35 उग्गह १ हा २ वा ३ धारणा ४ नन्दसूत्र २७
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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