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छाया
प्रथमाध्यायः
यत्र च यं जानीयात् निक्षेपं निक्षिपेत् निरवशेषं । यत्रापि च न जानीयात् चतुष्कं निक्षिपेत् तत्र ॥ आवश्यकं चतुर्विधं प्रज्ञ, तद्यथा - नामावश्यकं, स्थापनावश्यकं, द्रव्यावश्यकं, भावावश्यकं ।
भाषा टीका - जिसका ज्ञान हो उसको पूर्ण रूप से निक्षेप के रूप में रक्खे । किन्तु यदि किसी वस्तु का ज्ञान न हो तो उसको भी निम्नलिखित चार प्रकार से वर्णन करे - - आवश्यक चार प्रकार के कहे गये हैं- नामावश्यक, स्थापनावश्यक, द्रव्यावश्यक और भावावश्यक ।
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संगति - निक्षेप 'रखने ' अथवा ' उपस्थित करने' को कहते हैं। जैन शास्त्रों में वस्तु तस्व को शब्दों में रखने, उपस्थित करने अथवा वर्णन करने के चार ढंग बतलाये गये हैं । जिन्हें निक्षेप कहते हैं । अनुयोग द्वार सूत्र का इतना विशेष कथन है कि जिसको जाने उसका भी निक्षेप रूप में वर्णन करे और जिसको न जाने उसको जितना भी समझे कम से कम उतने का अवश्य चार निक्षेप रूप में वर्णन करे । क्यों कि इस प्रकार वस्तुतत्त्व अच्छा समझ में आ जाता है ।
प्रमाणनयैरधिगमः ॥
दव्वाण सव्वभावा, सव्वपमाणेहिं जस्स उवलद्वा सव्वाहिं नयविहीहिं, वित्थाररुइ ति नायव्वो ।
छाया
अ० १, सू० ६
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उत्तराध्ययन अ० २८ गा० २४
द्रव्याणां सर्वेभावाः, सर्वप्रमाणैर्यस्योपलब्द्धाः । सर्वैर्नयविधिभिः विस्ताररुचिरिति ज्ञातव्य: ।।
भाषा टीका - जिसको द्रव्यों के सब भाव सब प्रमाणों और सब नयों से प्राप्त (ज्ञात) हो चुके हैं, [उसको ] विस्तार रुचि जानना चाहिये ।
संगति - सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय तथा जीव आदि सात तत्वों को चारों निक्षेपों के अतिरिक्त प्रमाण और नय भी जान सकते हैं । किन्तु प्रमाण में समग्र कथन