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________________ नवमोऽध्यायः [ २२३ मिथ्यादृष्टियों के कहे हुये उन्मार्ग से ये प्राणी कैसे फिरेगें ? ये कब सन्मार्ग में भावेंगे ? इस प्रकार सन्मार्ग के अपाय का अथवा आस्रव के स्वरूप का चिन्तवन करना अपाय विचय धर्मध्यान है। ज्ञानावरण आदि कर्मों का द्रव्य क्षेत्र काल भाव के अनुसार जो विपाक अर्थात फल होता है उसका चिन्तवन करना विपाक विचय धर्मध्यान है। और लोक के संस्थानों का चिन्तवन करना सो संस्थान विचय धर्मध्यान है । यह धर्मध्यान चौथे असंयत, पांचवे देशसंयत, छटे प्रमत संयत और सातवें अप्रमत्त संयत इन चार गुणस्थानों में होता है। शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः। - ९,३७. सुहमसंपरायसरागचरित्तारिया य बायरसंपरायसरागचत्तारिया य,... 'उवसंतकसायवीर रायचरित्तारिया य खीणकसाय वीयरायचरित्तारिया च। प्रज्ञापना सूत्र पद १, चारित्रायविषय. छाया- सूक्ष्मसाम्परायसरागचरित्रार्याश्च बादरसाम्परायसरागचरित्रार्या श्च । उपशान्तकषायवीतरागचरित्रार्याश्च क्षीणकषायवीतरागच रित्रार्याश्च । भाषा टीका-सूक्ष्मसाम्पराय सराग चारित्र वाले आर्य, बादरसाम्परायसरागचारित्र वाले आर्य, उपशान्त कषाय वीतराग चारित्र वाले आर्य और क्षीणकषाय वीतराग चारित्र वाले आर्य [ इनके पृथक्त्ववितर्क और एकत्वषितर्क नामके दो शुक्ल ध्यान होते हैं।] परे केवलिन । सजोगिकवलिखीणकषायवीयरायचरित्तारिया य अजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायचरित्तारिया य । प्रज्ञापनासूत्र पद १ चारित्राविषय. ६,३८.
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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