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________________ तत्वार्थ सूत्र जैनाऽऽगमसमन्वय : ध्यानानां च द्विकं तथा, यो क्षिक्षुर्वर्जयति नित्यं । भाषा टीका - रौद्र ध्यान चार प्रकार का कहा गया है - १ | हिंसानुबन्धी अथवा हिंसानन्दी - [ हिंसा करने का बार बार चितन्तवन करना और उसमें आनन्द मानना, ] २ मृषानुबन्धी अथवा मृषोनन्दी -[ मूंठ बोलने का चिन्तवन करना और उसमें आनन्द मानना । ] २२२ ] ३ स्तेयानुबन्धी अथवा चौर्यानन्दी -[ चोरी करने का चिन्तवन करना और उसमें आनन्द मानना ।] ४ संरक्षणानुबन्धी अथवा परिग्रहानन्दी - [ विषयों को सामग्री का संरक्षण करने चितवन करना और उसमें आनन्द मानना । ] इन ध्यानों का भिक्षु सदा त्यागन करता है । संगति – इससे प्रगट है कि यह ध्यान भिक्षु अथवा छटे गुण स्थान वाले के नहीं होता । अतः यह स्वयं सिद्ध होगया कि यह प्रथम गुण स्थान से लगाकर पांचवें देशविरत गुणस्थान तक होता है । आज्ञापायविपाकसंस्थान विचयाय धर्म्यम् । ९, ३६. धम्मे झाणे चउविहे पणणते, तं जहा - आणाविजए, वायविजए, विवागविजए, संठाणविजए । व्याख्याप्रज्ञति श० २५, उ०७, सू० ८०३. छाया- धर्मध्यानं चतुर्विधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा - आज्ञाविचयः, अपायविवयः, विपाकविचयः संस्थानविचयः । भाषा टीका - धर्म ध्यान चार प्रकार का कहा गया है - आज्ञाविवय, अपाय विचय, विपाकविचय, और संस्थानविचय । संगति – उपदेशदाता के अभाव से और अपनी मंद बुद्धि से सूक्ष्म पदार्थों का स्वरूप अच्छी तरह समझ में न आवे तो उस समय सर्वज्ञ की आज्ञा को प्रमाण मान कर इन पदार्थ का अर्थ अवधारण करना आज्ञावित्रय धर्म ध्यान है ।
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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