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________________ नवमोऽध्यायः [ २२१ छाया- परिजूषितकामभोगसम्प्रयोगसम्प्रयुक्तो तस्य अविप्रयोगाय स्मृति समन्वागतश्चापि भवति । भाषा टीका- अनुभव किये अथवा भोगे हुए काम भोगों के वियोग न होने के लिये वांछा करना और उसका विचार करते रहना [निदान नामक आर्तध्यान कहलाता है] संगति - इन सब सूत्रों के शब्द आगम वाक्यों से प्रायः मिलते हैं। तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् । ९, ३४. अरुहाणि वजित्ता, झाएजा सुसमाहिये ।। उत्तराध्ययन अध्ययन ३०, गाथा ३५. छाया- आर्तरौद्राणि वर्जयित्वा, ध्यायेत् सुसमाहितः । भाषा टीका-आर्त और रौद्र को छोड़कर उत्तम समाधि में लगा हुआ ध्यान करे। संगति – उत्तम समाधि को प्राप्ति सातवें गुणस्थान से आरम्भ होती है । अतः यह स्वयं ही सिद्ध हो गया कि आर्त ध्यान सातव से पहिले २ अर्थात् प्रथम गुणस्थान से लगाकर छटे प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होता है। हिंसान्तस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः। ६, ३५. रोदज्झाणे चउव्विहे पण्णते, तं जहा-हिंसाणुबंधी मोसाणुबंधी तेयाणुबन्धी, सारक्खणाणुबंधी । व्याख्याप्रज्ञप्ति श० २५ उ०७, सू०८०३. झाणाणं च दुयं तहा जे भिक्खू वजई निच्चं । उत्तराध्ययन अ०३१, गाथा ६. छाया- रौद्रध्यानं चतुर्विधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-हिंसानुबन्धी, मृषानुबन्धी, स्तेयानुबन्धी, संरक्षणानुबन्धी।
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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