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________________ २२० ] ९, ३१. मणुन्न संपद्मोगसंपत्ते तरस विप्पयोग सति समरणायावि भवति । छाया तत्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय : विपरीतं मनोज्ञस्य | व्याख्याप्रज्ञप्ति श० २५, उ०७, सू० ८०३. मनोज्ञसम्प्रयोगसम्प्रयुक्तो तस्य श्रविप्रयोगाय स्मृतिसमन्वागतश्चापि भवति । इष्ट व्यक्ति के संयोग होने पर उसका वियोग न होने की चिन्ता करना । अथवा इष्ट व्यक्ति का वियोग होने पर उसके मिलने के लिये बारबार चिन्ता करना [ इष्ट वियोग नामक आर्तध्यान है । ] यावि भवति । छाया ९, ३२. मयंक संपभोगसंपत्ते तरस विप्पयोग सति समरागए वेदनायाश्च । व्याख्याप्रज्ञप्ति श० २५, ०७, सू० ८०३. श्रातङ्कसम्प्रयोगसम्प्रयुक्तो तस्य विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वागतश्चापि भवति । भाषा टीका - - किसी दुःख अथवा कष्ट के पड़ने पर उसके दूर होने के लिये arrer चिन्ता करना [ वेदना नामक आर्त ध्यान है ] । निदानञ्च । ९, ३३. परिजुसितकामभोग संपयोगसंपत्ते तस्य अविप्पयोग सति समरणागते यावि भवइ । व्याख्याप्रज्ञप्ति श० २५, उ०७, सू०८०३.
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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