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________________ प्रथमाध्यायः [ ५ तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ॥ त. सू. १०१, सू०२ तहियाणं तु भावाणं, सब्भावे उवएसणं । भावेणं सद्दहन्तस्स, सम्मतं तं वियाहियं ॥ उत्तरा० अ० २८ गाथा १५ छाया- तथ्यानां तु भावानां, सद्भाव उपदेशनम् । भावेन श्रद्दधतः सम्यक्त्वं तद् व्याख्यातम् ॥ भाषा टीका-वास्तविक भावों के अस्तित्व के उपदेश देने तथा उसी भाव से उसका श्रद्धान करने को सम्यक्त्व कहा गया है। संगति-जीव, अजीव आदि तत्त्वों के उसी स्वरूप का उपदेश देना जो वास्तविक है और जिसका जैन शास्त्रों में वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त जिस रूप से उसको जानकर उनका उपदेश किया जाता है उसी भाव से उनमें श्रद्धान रखना सम्यग्दर्शन है। तन्निसर्गादधिगमाद्वा॥ त० सू० अ० १, सू०३ सम्मइसणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-णिसग्गसम्महसणे चेव अभिगमसम्मदसणे चेव ॥ स्थानाङ्ग सूत्र स्थान २, उहेश १, सूत्र ७० छाया- सम्यग्दर्शनं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-निसर्गसम्यग्दर्शनं चैव ___ अभिगमसम्यग्दर्शनं चैव ॥ भाषा टीका-वह सम्यग्दर्शन दो प्रकार का होता है, एक निसर्ग सम्यग्दर्शन दूसरा अभिगम सम्यग्दर्शन। संगति-निसर्ग शब्द का अर्थ स्वभाव है, और अभिगम शब्द का अर्थ ज्ञान है। जो सम्यग्दर्शन पिछले भव अथवा उत्तम संस्कार आदि के स्वभाव से स्वयं ही मात्मा में प्रगट हो उसे निसर्ग सम्यग्दर्शन कहते हैं, किन्तु जो सम्यग्दर्शन भाचार्य, -
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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