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________________ १८० ] तत्वार्थ सूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय : भाषा टीका-बन्ध योग से होता है और कषाय से होता है । दो स्थानों से पाप कर्म बंधते हैं- राग से और द्वेष से । राग दो प्रकार का कहा गया है - माया और लोभ । द्वेष दो प्रकार का कहा गया है— क्रोध और मान । संगति - उपरोक्त आगम वाक्य में स्पष्ट है कि बंध जीव के कषाय युक्त होने पर ही होता है। कर्म के योग्य पुद्गलों का ग्रहण करना स्पष्ट ही है। प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशास्तद्विधयः । ८, ३. चव्वि बन्धे पणत्ते, तं जहा - पगइबंधे ठिइबन्धे अणु भावबन्धे परसबन्धे | छाया- समवायांग समवाय ४. चतुर्विधः बन्धः प्रज्ञप्तस्तद्यथा - प्रकृतिबन्धः, स्थितिबन्धः, अनुभागबन्धः, प्रदेशबन्धः । भाषा टीका-बन्ध चार प्रकार का बतलाया गया है - प्रकृतिबंध, स्थिति बंध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबंध । ज्ञानदर्शनावरणवेदनीय मोहनीयायु र्नामगोत्रान्तरायाः । ८, ४. कम्मपगडीओ पणत्ताओ, तं जहा-गाणावर णिज्जं, दंसणावर णिज्जं वेदणिजं, मोहणिजं, आउयं, नामं, गोयं, अंतर इयं । ---- प्रज्ञापना पद २१, उ०१, सु०२८८. छाया- अष्टौ कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - ज्ञानावरणीयं, दर्शनावरणीयं, वेदनीयं मोहनीयं आयुः, नाम, गोत्रं, अन्तरायः । भाषा टीका - कर्मप्रकृतियां आठ प्रकार की बतलाई गई हैं । वह यह हैंज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय ।
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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