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________________ सप्तमोऽध्यायः हिंसाऽनृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् । देशसर्वतोऽणुमहती। पंच महव्वया पण्णता, तं जहा-सव्वातो पाणातिवायामओ वेरमणं । जाव सव्वातो परिग्गहातो वेरमणं । पंचाणुव्वता पएणत्ता, तं जहा-थूलातो पाणाइवायातो वेरमणं थूलातो मुसावायातो वेरमणं थूलातो अदिन्नादाणातो वेरमणं सदारसंतोसे इच्छापरिमाणे । स्थानांग स्थान ५, उ० १, सू० ३८६. पञ्चमहाव्रताः प्रज्ञमाः, तद्यथा-सर्वतः पाणातिपातात् वेरमणं, यावत् सर्वतः परिग्रहात् वेरमणं । पञ्चाणुव्रताः प्रज्ञप्ताः, तद्यथास्थूलतः प्राणातिपातात् वेरमणं स्थूलतः मृषावादावरमणं स्थू लतोऽदत्तादानावरमणं स्वदारसन्तोषः इच्छापरिमाणः। भाषा टीका-महाव्रत पांच होते हैं-सब प्रकार को प्राणि हिंसा से बचने से लगाकर सब प्रकार के परिग्रह से बचने तक । अणुव्रत भी पांच होते हैं-स्थूल प्राणिहिंसा से बचना, स्थूल असत्य भाषण से बचना, स्थूल चोरी से बचना, स्वदारसंतोष और इच्छा को नाप तोल के रखना। तत्स्थैर्यार्थ भावनाः पञ्च पञ्च । पंचजामस्य पणवीसं भावणाओ पएणत्ता । समवायांग, समवाय २५. छाया
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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