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तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय :
है और दूसरों की निन्दा करता है। अभिमानी सदा अपने न होने वाले गुणों को भी प्रकाशित करता है और दूसरे के होने वाले गुणों को भी छिपाता है। तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्यनुत्सेको चोत्तरस्य ।
२, २६. जातिअमदेणं कुलअमदेणं बलअमदेणं रूवअमदेणं तर. अमदेणं सुयअमदेणं लाभअमदेणं इस्सरियअमदेणं उच्चागोयकम्मासरीरजावपयोगबंधे ।
__ व्याख्या० शतक ८ उ० ९ सू० ३५१. छाया- जात्यमदेन कुलामदेन बलामदेन रूपामदेन तपसमदेन श्रुतामदेन
लाभामदेन ऐश्वर्यामदेन उच्चगोत्रकर्माणि यावत् प्रयोगबन्धः। भाषा टीका–जाति, कुल, बल, रूप, तप, विद्या, लाभ और ऐश्वर्य का घमंड म करने से उच्च गोत्र कर्म के शरीर का प्रयोग बन्ध होता है। संगति-यहां भी उपरोक्क सूत्र के समान सूत्र और आगम को मिला लेना चाहिये ।
विघ्नकरणमन्तरायस्य।
दाणंतराएणं लाभंतगएण भोगंतराएणं उवभोगंतराएणं वारियंतराएणं अंतराइयकम्मा सरीरप्पयोगबन्धे ।
व्याख्या प्रज्ञप्ति श० ८, उ० ९, सू० ३५१. छाया- दानान्तरायेन, लाभान्तरायेन, भोगान्तरायेन, उपभोगान्तरायेन.
वीर्यान्तरायेन अन्तरायकर्माणि शरीरप्रयोगबन्धः। भाषा टीका-दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में विघ्न करने से अन्तराय कर्म के शरीर का प्रयोगबन्ध होता है। इति श्री-जैनमुनि-उपाध्याय-श्रीमदात्माराम महाराज-संगृहीते
तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वये * षष्ठोऽध्यायः समाप्तः ॥ ६॥