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षष्ठोऽध्याय:
पूर्वज्ञानग्रहणं श्रुतभक्तिः प्रवचने प्रभावना | एतैः कारणैः तीर्थकरत्वं लभते जीवः ॥ ३ ॥
भाषा टीका - १. अर्हत भक्ति, २. सिद्ध भक्ति, ३. प्रवचन भक्ति, ४. स्थविर (आचार्य) भक्ति, ५. बहुश्रुत भक्ति, ६. तपस्वित्सलता, ७. निरन्तर ज्ञान में उपयोग रखना, ८. दर्शन का विशुद्ध रखना, ६. विनय सहित होना, १०. आवश्यकों का पालन करना, ११. अतिचार रहित शील और व्रतों का पालन करना, १२. संसार को क्षणभंगुर समझना, १३. शक्ति अनुसार तप करना. १४. त्याग करना, १५. वैयावृत्य करना, १६ समाधि करना, १७ अपूर्व ज्ञान को ग्रहण करना, १८ शास्त्र में भक्ति होना, १६ प्रवचन में भक्ति होना, और २० प्रभावना करना। इन कारणों से जीव तीर्थकर प्रकृति का बंध करता है।
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संगति – सूत्र में सोलह तथा आगम वाक्य में बीस कारण बतलाये गये हैं । किन्तु विचार कर देखने से पता चलता है कि आगम के बीस केवल विस्तार दृष्टि से ही हैं । अन्यथा सूत्र के सोलह से अधिक उनमें एक भी बात नहीं है । सूत्रकार ने उसी को अत्यंत संक्षेप से लेकर सोलह कारण भावनाओं की रचना की है।
परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भा
वने च नीचैर्गोत्रस्य |
छाया
६, २५.
जातिमदेणं कुलमदेणं बलमदेणं जाव इस्सरियमदेणं खीयागोयकम्मासरीरजाव पयोगबन्धे ।
व्याख्या० शत०८, उ०६, सू० ३५१.
जातिमदेन कुलमदेन बलमदेन यावत् ऐश्वर्यमदेन नीचगोत्रकर्माणि यावत् प्रयोगबन्धः ।
भाषा टीका - जाति के मद से कुल के मद से, बल के मद से, तथा अन्य मदों सहित ऐश्वर्य के मद से नीच गोत्र कर्म के शरीर का प्रयोग बंध होता है।
संगति - यद्यपि इस सूत्र के और आगम बाक्य के शब्द आपस में नहीं मिलते। किन्तु भाव फिर भी दोनों का एक ही है। क्योंकि अभिमानी सदा अपनी प्रशंसा करता