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________________ १४२ ] तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय : शुभः पुण्यास्या शुभः पापस्य । पुण्णं पावासवो तहा। उत्तराध्ययन अध्ययन २८ गाथा १४ छाया- पुण्यं पापास्रवस्तथा। भाषा टीका - उस आस्रव के दो भेद होते हैं, शुभ कर्मो का पुण्य रूप शुभ भास्रव होता है और अशुभ कर्मों का पाप रूप अशुभ आस्रव होता है । सकषायाकषाययोः साम्परायिकर्यापथयोः । जस्स णं कोहमाणमायालोभा वोच्छिना भवन्ति तस्स णं ईरियाबहिया किरिया कजइ नो संपराइया किरिया कजइ, जस्स णं कोहमाणमायालोभा अवोच्छिन्ना भवन्ति तस्स णं संपरायकिरिया कजइ नो ईरियाबहिया । व्याख्या प्रज्ञप्ति शतक ७ उद्दे० १ सूत्र २६७. छाया- यस्य क्रोधमानपायालोमाः व्यवच्छिन्नाः भवन्ति तस्य ईर्यापथिका क्रिया क्रियते, नो साम्परायिका क्रिया क्रियते । यस्य क्रोधमानमायालोमा अव्यवछिन्ना भवन्ति तस्य साम्परायिका क्रिया क्रियते नो ईर्यापथिका। भाषा टीका-जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ नष्ट हो जाते हैं उसके ईर्यापथिका क्रिया (आसूव) होती है उसके साम्परायिक क्रिया नहीं होती। किन्तु जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ नष्ट नहीं होते उसके साम्परायिका क्रिया (आस्रव ) होती है। उसके ईर्यापथिका क्रिया नहीं होती। इन्द्रियकषायाव्रतक्रियाः पञ्चचतुःपञ्च
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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