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________________ (२५) नहीं रहा है, चारोंवर्ण प्रायः समझने लगो हैं कि जिसका युक्ति युक्त वचन हो उसीका वचन ग्रहण करना चाहिये, ऐसे समयमें यह विषय उपकारक हो सकता है, जैसे प्रभुकी मूर्तिओंसे कौनसे देव वीतराग हैं?, इस विषयका खयाल हो सकता है, ऐसे ही शास्त्रोके तपास करनेसे भी जिनके जीवनचरित्र अति स्वच्छ, कामादि चेष्टा शून्य, वैर विरोधसे रहित, और आत्मध्यानमय हों वेही शुद्धदेव हो सकते हैं और जिन्होंने काम चेष्टाको ही सार माना क्लेशमय जीवन बनाया, और कोई किसीकी स्त्रीके पिछे दोडा, किसीका किसीको देखकर वीर्य स्खलित हो गया, ऐसे अपवित्र वर्त्तन जिस देवके विषयमें शास्त्रोंमें प्रत्यक्ष लिखे हों वे कुदेव हैं, जहाँ ऐसा स्वतः विचार हो सकता है त्यहाँ निंदाकी क्या बात हुई ?, ऐसे निष्पक्ष तत्त्वका विचार करेगा वह कल्याण के रास्तेको हासिल कर सकता है, परंतु इतना भाग्य होना चाहिये, देखो जिनेश्वर देवके चरित्र वर्णनके वास्ते, ' कल्पसूत्र' । त्रिषष्टि शलाका पुरुषचरित्र' कैसे परम पवित्र जीवन चरित्र हैं ? इनकी जीवन घटनामें वैदिक अवतार की तरह कहीं भी राग और द्वेषकी चेष्टा या कामीपनेका वर्ताव नहीं नजर आता अगर निष्पक्ष भावसे विचार करते हैं तो देवत्व इनमें ही सिद्ध होता है और इनमें ही सर्वज्ञता साबित होती है, इस लिये इनका कथन किया हुआ धर्म ही प्राणीको ग्रहण करने लायक है, इस धर्मकी प्र.प्तिके लिये सतत प्रयत्न करना चाहिये, क्यों कि इस चारगतिरूप संसारमें महापुण्यके उदयसे यह मनुष्यजन्म प्राप्त हुआ है तो इसे हाँसल कर धर्मकी प्राप्तिसे सफल करना चाहिये, दुनिया अनेक प्रपची जनोंने धर्मका
SR No.022530
Book TitleMat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages236
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size17 MB
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