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________________ ( २४ ) जिसको मूर्ति स्त्री सहित हो तो साफ जाहिर हो सकता है। कि ये मूर्तिवाले देव पूरे रागी थे और काम विकारोंसे दुःखी थे, नहीं तो स्त्रीकी क्या जरुरत ?, जो जैसा हो उसकी मूर्ति भी वैसी ही होती है, इस नियमसे वे जीते स्त्री सहित ही जीवन गुजारनेवाले थे, मगर जीवनमें स्त्रीका संग छोडा नहीं था, यही कारण है कि उनकी मूर्ति भी स्त्री सहित बनाइ गइ है, ऐसे हो जिस देवकी मूर्ति के हाथमें शस्त्र हो वह द्वेषो है, अन्यथा शस्त्र पकडनेकी क्या जरूरत?, अगर दुष्टोंको मारनेके लिये शस्त्र पक्डे हैं तो क्या उनके मारे विगेरे उनका सुधारा नहीं हो सकता है ?, शस्त्रसे कार्य करना असमर्थ निर्दय और लोभीका काम है, परमात्मामें ये बातें होही नहीं सकती तो फिर शस्त्रकी क्या जरुरत?, और उन लोगोंके हिसाबसे तो वह बुद्धिको ही बदल देवे तो क्या उमदा कि ऐसे करके काम ही न करने पड़ें, बस, सिद्ध हुआ कि जिसदेवकी मूर्तिएं स्त्री या शस्त्र सहित हो वे रागी द्वेषी देव हैं अपना कल्याण नहीं कर सकते, जिस देवकी शांत परम वीतरागस्वरूप मूर्ति हो वही देव राग द्वेष मुक्त है, ऐसा मानकर उनहीके चरणोंकी सेवा करनेसे भवोदधि पार हो सकते हैं, परंतु जहां पर प्रथमसे ही द्वेषीयोंने ऐसी वासना बिठादी हो कि-" हस्तिना ताड्यमानोऽपि, न गच्छेज्जैनमन्द्रिम् ,"-भले हाथी जानसे मार डाले तो मर जाना मगर बचनेके लिये जैनमंदिरमें नहीं घूसना, वहां शांत वीतरागैप्रभुकी मूर्ति कैसे आसनसे विराजमान होकर परमशांत स्वरूपसे भक्तोंको कैसी अपूर्व शांति दे रही है यह देखनेकाही समय कैसे मिल सके ?, अस्तु, अब वो कटाकटीका समय
SR No.022530
Book TitleMat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages236
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size17 MB
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