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________________ (२६) स्वरूप ऐसा बिगाड दिया है कि जिसका हदो हिसाध नहीं, मनुष्यको उचित है किधर्मकी खूब परीक्षा करके ग्रहण करें, जिस मतमें देव गुरु और धर्म ये तीनों तत्त्व ऐसे पवित्र हों कि जिनमें किसी तरहका दूषण न हो, उसी मतको ग्रहण करना चाहिये, प्रथम देवतत्त्व है इस पर विचार किया गया और बताया गया कि परमशुद्ध तीर्थकर प्रभु है, और नहीं है, इस बातको जतलानेके लिये अन्यधर्मावलंबियोंको जैनावतारोंके जीवन चरित्र पढनेको देने चाहिये वे उन चरित्रोंको पढ कर और अपने देवोंका स्वरूपसे मुकाबला कर अगर पक्षपात रहित होंगे तो तुरत मार्ग पर आ जायेंगे और शुद्ध अर्हन् जिनदेवकेही उपासक बन जायेंगे. __श्रावक-क्या अर्हन् देवकं सिवाय दूसरे देव राग द्वेष रहित नहीं है?, जिससे आप एक जिनदेवका ही सेवन करना फरमाते हैं. सूरीश्वरजी हाँ ऐसा ही है, देखो प्रथम तुम पौराणिक देवताओंकी लीला, अगर मध्यस्थ भावसे कोई भी विचारेगा तो साफ तौर पर कबूल करना पडेगा कि वे वैदिक अवतार उनके पुराणोंसेही कैसे राग द्वेषसे भरे हुए सिद्ध होते हैं, यह लेख किसीके दिल दुःखानेके लिये नहीं लिखा जाता, सिरफ इसी गरजसे यह लेख लिखा जाता है कि कोई भी जीव कुदेवके स्वरूपको समझकर सुदेवके स्वरूपको समझ ले तो फिर इसको इस असार संसारमें भटकना ना पडे और सम्यक्त्वरत्नकी प्राप्ति द्वारा उसका अनादि मिथ्यात्व दारिद्रय दूर हो जावे, मनुष्य होकर भी मिथ्यात्वसेवनसे
SR No.022530
Book TitleMat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages236
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size17 MB
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