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________________ (१११) विधान है, इन बातोंसे दयाका अभाव आर हिंसाका भाव बतलाता हुआ यह विधान इन शास्त्रोंको कुशास्त्ररूप साबित करता है, अरे ! पुराणोंको छोड दो, वेदोंमें भी कहां कमी रक्खी है, देखो-शंकर दिग्विजयके २६ वे प्रकरणमें आनंदगिरि लिखवा है कि___ " पशुहिंसा श्रुत्याचारतत्परैरंगीकरणीया, हिंसा कर्त्तव्येत्यत्र वेदाः सहस्रं प्रमाणं वर्तते, ब्रह्म-क्षत्र-वैश्यशूद्राणां वेदेतिहासपुराणाचारः प्रमाणमेव, तदन्यः पतितो नरकगामी चेति अनिष्टोमादिक्रतुः छागादि पशुमान् यागस्य धर्मत्वात् सर्वदेवप्तिमूलकत्वाच तद्वारा स्वर्गादिफलदर्शनत्वाच." इस उपरके पाठमें लिखा है कि हजारों श्रुतिएं हिंसा करनेका आदेश करती हैं, इस लिये वैदिकहिंसा कर्त्तव्य है, इस लिये वेदकी भी हजारो श्रुतिएं हिंसामयी पुराणके लेखको सिद्ध करती हैं ऐसा साबित हुआ, अब बुद्धिमानोंको विचार करना चाहिये कि जहां पर मूल ग्रंथ उत्तरग्रंथ सभीमें ऐसी क्रूर बातें लिखी हों उन ग्रंथो पर चलनेवालोंका भला कैसे हो सके ?. अगर कोई कहे कि उन बातोंके उल्लेखवाले पाठोंको छोड कर अच्छी बातें जिन पाठोंमें लिखी हों उन पाठोंको ठीक माने फिर तो कल्याण हो सकता है, ? तो यह कहना भी ठीक नहीं, क्यों कि विषमिश्रित अन्नको पृथक् कर भक्षण करनेवालेको जैसा उसका पृथक्करण दुर्घट मालूम होता है और भक्षणसे मरणका अनुभव करना पडता है, ऐसे ही मिथ्यामोहितोंके रचे हुए शास्त्रोंके विषयमें भी समझ लेना चाहिये.
SR No.022530
Book TitleMat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages236
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size17 MB
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