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________________ 234 Studies in Umāsvāti पूर्वकोटि काल तक विचरण करता है। 14 अन्तिम भव की आयु अनपवर्तित होने के कारण अभेद्य होती है। वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म भी उसके समान अभेद्य होते हैं। किन्तु जिस केवली के आयुकर्म की अपेक्षा वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म की स्थिति अधिक होती है तो वह उसे समुद्घात करके आयुकर्म के समान कर लेता है। 15 समुद्घात करने की एक निश्चित विधि होती है जिसमें आत्म- प्रदेशों को लोकाकाश में फैलाकर कर्म स्थिति को समान कर दिया जाता है, जिसके अन्तर्गत आत्मप्रदेशों को क्रमश: दण्डाकार, कपाटाकार, मथन्याकार और लोकव्यापी किया जाता है। यह प्रत्येक कर्म एक-एक समय में होता है । 1" इसी प्रकार विपरीत क्रम से आत्म-प्रदेशों का एक-एक समय में संकोच किया जाता है।” समुद्घात के पश्चात् योग निरोध की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है । सबसे पहले मनोयोग का निरोध किया जाता है, फिर क्रमशः वचनयोग और काययोग का निरोध किया जाता है । " काययोग का निरोध करते समय शुक्लध्यान के अन्तिम दो प्रकार सूक्ष्मक्रिय अप्रतिपाति और व्युपरतक्रिय नामक ध्यान को ध्याता है। यह ध्यान की अन्तिम अवस्था है। 19 इसके बाद अयोग अवस्था आ जाती है।2° इसे कर्मसिद्धान्त में चौदहवाँ गुणस्थान कहा गया है। इसे शैलेशी अवस्था भी कहा गया है। यह अवस्था पाँच ईषद् ह्रस्वाक्षरों को उच्चरित करने जितने समय तक के लिए होती है। 21 इस अवस्था में ही वह केवली अवशिष्ट कर्मों का एक साथ क्षय कर देता है। इसके साथ ही औदारिक, तैजस और कार्मण शरीरों से मुक्त होकर वह ऋजु श्रेणि से अस्पृशद् गति द्वारा एक समय में ही ऊर्ध्व लोक में अवस्थित हो जाता है। यहाँ वह सादि, अनन्त, अनुपम और अव्याबाध उत्तम सुख को प्राप्त होते हुए केवल सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन स्वरूप होकर रहता है। 22 लोकस्वरूपः प्रशमरतिप्रकरण में लोक का बाह्य स्वरूप भी निरूपित हुआ है। इसमें लोक को ऐसे खड़े हुए पुरुष के आकार का प्रतिपादित किया गया है, जिसके दोनों पैर फैले हुए हों तथा कटिभाग पर दोनों ओर हाथ रखे हुए हों। लोक को जैन दर्शन षड्द्रव्यात्मक स्वीकार करता है। धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल, काल और जीव ये षड् द्रव्य हैं। यह लोक अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक के रूप में तीनों भागों में विभक्त है। अधोलोक उलटे सकोरे के समान आकार का होता है । तिर्यक्लोक को अनेक प्रकार का तथा ऊर्ध्वलोक को पन्द्रह प्रकार का बताया वह
SR No.022529
Book TitleStudies In Umasvati And His Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Tripathi, Ashokkumar Singh
PublisherBhogilal Laherchand Institute of Indology
Publication Year2016
Total Pages300
LanguageEnglish, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_English & Book_Devnagari
File Size23 MB
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