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________________ उमास्वातिकृत प्रशमरतिप्रकरण : एक अध्ययन 233 इस प्रसङ्ग में वे निर्ग्रन्थ का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि ज्ञानावरण आदि अष्टविध कर्म, मिथ्यात्व, अविरति एवं अशुभ योग ये सब ग्रन्थ हैं तथा इन्हें जीतने के लिए जो निष्कपटरूपेण यत्नशील रहता है वह निर्ग्रन्थ है ग्रन्थः कर्माष्टविधं मिथ्यात्वाविरतिदुष्टयोगाश्च। तज्जयहेतोरशठं संयतते यः स निर्ग्रन्थः।। कारिका, 142 इस प्रकार उमास्वाति वस्त्र, पात्र आदि को साधना में बाधक नहीं मानकर उन्हें अपेक्षा से कल्प्य स्वीकार करते हैं। उमास्वाति की यह मान्यता उन्हें श्वेताम्बर सिद्ध करती है। तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति ने इस प्रकार के किसी मन्तव्य को स्थान नहीं दिया है। मुक्ति की प्रक्रियाः मोक्ष-प्राप्ति में बाधक आठ कर्म हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तराय। इनमें से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय एवं अन्तराय ये चार घाती कर्म हैं जो केवलज्ञान में बाधक हैं। इन आठ कर्मों में से सर्वप्रथम मोहनीय कर्म का क्षय किया जाता है। प्रशमरतिप्रकरण में मोह क्षय करने की प्रक्रिया का सुन्दर निरूपण हुआ है। इसके लिए जीव सर्वप्रथम अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया एवं लोभ का क्षय करता है। तदनन्तर मिथ्यात्व मोहनीय एवं सम्यक्त्व-मिथ्यात्व-मोह का क्षय कर सम्यक्त्व मोहनीय को नष्ट करता है। इस प्रकार मोहकर्म की सात प्रतियों का क्षय करने के पश्चात् यदि मोहोन्मूलन की प्रक्रिया अनवरत चलती रही तो जीव आठ कषायों (प्रत्याख्यान चतुष्क और अप्रत्यख्यानावरण चतुष्क) का क्षय करता है। फिर क्रमशः नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, हास्यादि षट्क (हास्य, रति, अरति, भय, शोक और जुगुप्सा) का क्षय करके पुरुषवेद का क्षय करता है। फिर संज्वलन क्रोध, मान, माया एवं लोभ का भी क्षय कर जीव वीतरागता को प्राप्त कर लेता है।12 इस प्रकार मोहनीय कर्म की 28 प्रकृतियों का क्षय होने पर पूर्ण वीतरागता प्राप्त होती है। पूर्ण वीतरागता के साथ ही ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अन्तराय नामक घाती कर्म को क्षय कर साधक केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है।13 ___ इस प्रकार मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय नामक चार घाती कर्मों को क्षय कर लेने वाला केवलज्ञानी शेष चार अघाती कर्मों (वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र) को अनुभव करता हुआ एक मुहूर्त तक अथवा कुछ कम एक
SR No.022529
Book TitleStudies In Umasvati And His Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Tripathi, Ashokkumar Singh
PublisherBhogilal Laherchand Institute of Indology
Publication Year2016
Total Pages300
LanguageEnglish, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_English & Book_Devnagari
File Size23 MB
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