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________________ जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन जा सकता है कि मतिज्ञान के विषय मात्र वर्तमान काल के हैं। आचार्य हरिभद्र ने तत्त्वार्थवृत्ति में इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा है कि साम्प्रतकाल में गृहीत वस्तु की ही स्मृति होती है- " स्मृतेरतीतविषयत्वान्न सर्वमेवम्विधमिति चेत्, न, साम्प्रतकाल-‍ ल-गृहीतारिक्तस्य कस्यचिदस्मरणात्।' 156 9914 उमास्वाति ने श्रुतज्ञान की एक अन्य विशेषता का उल्लेख किया है कि यह मतिज्ञान की अपेक्षा अधिक स्पष्ट है ।" हरिभद्र व्याख्या करते हैं कि श्रुतज्ञान से बाधित, दूरस्थ एवं सूक्ष्म विषयों का भी ज्ञान हो सकता है, इसलिए उसमें अधिक स्पष्टता है ।" जानने की इस योग्यता के कारण ही ज्ञाता को श्रुत केवली कहा जाता है।” तत्त्वार्थभाष्य के अनुसार दोनों ज्ञानों में एक अन्य भेदक विशेषता यह है कि श्रुतज्ञान का विषय मतिज्ञान से अधिक व्यापक है । वे इसके समर्थन में दो तर्क देते हैं- 1. श्रुतज्ञान सर्वज्ञ के द्वारा कहा जाता है 2. यह अनन्त ज्ञेय को विषय करता है । 18 - आगमिक विचारधारा के अनुसार प्रत्येक जीव में कम से कम दो ज्ञान होते हैं. मतिज्ञान और श्रुतज्ञान । सम्यक्त्व के अभाव में ये दोनों क्रमशः मति- अज्ञान और श्रुत- अज्ञान कहलाते हैं।" यदि हम श्रुतज्ञान को शाब्दिक अथवा आगमिक ज्ञान मानते हैं, तो ऐसा ज्ञान एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय जीवों में नहीं हो सकता, क्योंकि उनमें श्रोत्रेन्द्रिय नहीं होने से शब्द ज्ञान नहीं हो सकता तथा आगमज्ञान तो अधिकांश पंचेन्द्रिय जीवों में भी नहीं होता, आगमस्वरूप श्रुतज्ञान तो मात्र कुछ मनुष्यों में ही प्राप्त होता है । विशेषावश्यकभाष्य में जिनभद्रगणि ने इस समस्या का समाधान करते हुए कहा है कि प्रत्येक जीव में भाव श्रुतज्ञान होता है । उन्होंने दो प्रकार के श्रुतज्ञानों का निरूपण किया है - 1. द्रव्यश्रुत ज्ञान, 2. भावश्रुत ज्ञान । द्रव्यश्रुत ज्ञान शाब्दिकज्ञान है तथा भावश्रुतज्ञान का उसके माध्यम से अनुभव होता है, किन्तु कहीं भावश्रुत ज्ञान का अनुभव बिना द्रव्य श्रुत के भी होता है, जैसे कि एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय जीवों में होता है। इसको लब्ध्यक्षर श्रुतज्ञान भी प्रतिपादित किया गया है। यह अक्षर श्रुतज्ञान प्रत्येक जीव की न्यूनतम योग्यता है, इसके बिना कोई जीव जीव नहीं हो सकता | 20 श्रुतज्ञान एवं श्रुतअज्ञान में भेद का प्रतिपादन करते हुए श्री कन्हैयालाल जी
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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