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________________ श्रुतज्ञान का स्वरूप 157 लोढ़ा लिखते हैं कि मतिज्ञान से विषयों का ज्ञान होने के पश्चात् यदि व्यक्ति उनके भोग में ही सुख मानता है तो यह उसका श्रुत अज्ञान है तथा मतिज्ञान से विषयों को जानकर निर्णय करता है कि इन विषयों के भोग से जिस सुख की प्रतीति होती है, वह सुख क्षणिक है, सुखाभास है, वास्तविक सुख नहीं है। इस प्रकार का सम्यग्दर्शन युक्त ज्ञान श्रुतज्ञान है। श्रुतज्ञानी जानता है कि विषयसुख के भोगी को दुःख भोगना ही पड़ता है । 21 आधुनिक विद्वानों में डॉ. नगीन जे. शाह एवं श्री कन्हैयालाल लोढा का चिन्तन विचारणीय है । नगीन जे. शाह का चिन्तन है कि पहले श्रवण होता है एवं फिर मनन होता है | श्रवण श्रुतज्ञान का तथा मनन मतिज्ञान का द्योतक है । वे अपने चिन्तन का आधार वैदिक मान्यता को बनाते हैं, जिसमें श्रवण, मनन एवं निदिध्यासन का क्रम है । उन्होंने अपने चिन्तन का आधार तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकार सिद्धसेनगणि के कथन को भी बनाया है । सिद्धसेनगणि लिखते हैं- मतिज्ञानी तावत् श्रुतज्ञानेनोपलब्धेषु अर्थेषु 'द्रव्याणि ध्यायति (मनुते ) तदा मतिज्ञानविषयः सर्वद्रव्याणि न तु सर्वाः पर्यायाः ' तथा श्रुतग्रन्थानुसारेण सर्वाणि धर्मादीनि जानाति, न तु तेषां सर्वपर्यायान् । ( टीका, सूत्र 1.27 ) । नगीन जे. शाह का निष्कर्ष है - यह स्पष्ट दिखाता है कि जिसे जैन मतिज्ञान कहते हैं वह मूलतः मनन है और प्रथम श्रवण (श्रुत) है और बाद में मति (मनन) है। श्रुत के आधार पर ही मनन (मति) चलता है। 22 डॉ. शाह का यह चिन्तन उन पर वैदिकधारा के श्रवण, मनन एवं निदिध्यासन के क्रम का प्रभाव है, क्योंकि जैन परम्परा में तो यह तथ्य ही प्रबलता से उजागर हुआ है कि मतिपूर्वक श्रुत होता है । अतः इस तथ्य की उपेक्षा करना उचित नहीं है। दूसरी बात यह है कि मतिज्ञान का जो एक व्यापक स्वरूप है कि स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय आदि प्रत्येक इन्द्रिय से एवं मन से मतिज्ञान होता है, वह भी धूमिल हो जाता है। अतः नगीन जे. शाह का चिन्तन जैन मत के अनुकूल नहीं है। श्री कन्हैयालाल लोढा श्रुतज्ञान को आध्यात्मिक ज्ञान के रूप में प्रस्तुत करते हैं। वे लिखते हैं- “ श्रुतज्ञान है - देखे हुए, जाने हुए मतिज्ञान से अपने इष्ट और अनिष्ट का, हित-अहित का, हैय - उपादेय का ज्ञान करना । प्राणिमात्र का हित स्वभाव के अनुभव में है । अतः अपने स्वभाव का ज्ञान ही श्रुतज्ञान है । यह स्वयं सिद्ध ज्ञान
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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