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________________ श्रुतज्ञान का स्वरूप 155 माना जा सकता है, किन्तु सब जीवों की दृष्टि से वह सदैव विद्यमान रहता है। यद्यपि श्रुतज्ञान को शब्दज्ञान के रूप में परिभाषित किया जाता है, जो शब्दों के माध्यम से मतिज्ञान के द्वारा गृहीत होता है, किन्तु यह शब्दज्ञान तक सीमित नहीं होता। आचार्य विद्यानन्द ने स्पष्ट किया है कि सभी इन्द्रियों एवं मन से होने वाला मतिज्ञान श्रुतज्ञान का कारण होता है। इस प्रकार स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय एवं श्रोत्रेन्द्रिय से होने वाला मतिज्ञान भी श्रुतज्ञान को जन्म देता है । उदाहरण के लिए चींटी घ्राणेन्द्रिय से चीनी, मिठाई आदि का ज्ञान कर उसकी हेयोपादेयता का बोध श्रुत अज्ञान से करती है। श्रुतज्ञान मतिज्ञान के बाद की अवस्था है । मतिपूर्वक यद्यपि स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क एवं अनुमान ज्ञान भी होते हैं, किन्तु इनका समावेश मतिज्ञान में ही होता है। अतः स्मरण आदि ज्ञान श्रुतज्ञान से भिन्न है। आचार्य विद्यानन्द ने मतिज्ञान को श्रुतज्ञान का बहिरंग कारण स्वीकार किया है तथा अन्तरंग कारण वे श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम को मानते हैं । स्मृति, प्रत्यभिज्ञानादि में यह अन्तरंग कारण कार्य नहीं करता, अतः स्मृति आदि को श्रुतज्ञान नहीं कहा जा सकता।" एक प्रश्न यह उपस्थित होता है कि केवलज्ञानी जब कोई देशना फरमाते हैं तो वह द्रव्यश्रुत है और द्रव्यश्रुत बिना भावश्रुत के नहीं हो सकता, अतः केवलज्ञानी में भी श्रुतज्ञान मानने का प्रसंग उपस्थित होता है। नियुक्तिकार भद्रबाहु ने इसका समाधान करते हुए कहा है कि केवलज्ञानी केवलज्ञान से अर्थ को जानकर उसमें जो प्रज्ञापना करने योग्य अर्थ होता है उसे कहते हैं, उनका इस प्रकार देशना देना वचन योग है तथा शेष जीवों के लिए यह श्रुतज्ञान है।" मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान में भेद ___ तत्त्वार्थाधिगम में उमास्वाति मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान में भेद करते हुए कहते हैंउत्पन्नविनष्टार्थग्राहकं साम्प्रतकालविषयं मतिज्ञानं, श्रुतज्ञानन्तु त्रिकालविषयम् उत्पन्नविनष्टानुत्पन्नार्थग्राहकम् ।" अर्थात् मतिज्ञान तो वर्तमान काल के उत्पन्न एवं विनष्ट होने वाले अर्थ को ग्रहण करता है, जबकि श्रुतज्ञान तीनों काल के उत्पन्न, विनष्ट एवं अनुत्पन्न अर्थों को जानता है । यहाँ प्रश्न उठता है कि स्मृति भी एक प्रकार का मतिज्ञान है एवं वह भूतकाल के विषयों को जानती है, तो यह कैसे कहा
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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