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________________ जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन शरीर, वैक्रिय शरीर, आहारक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समुद्घात, पर्याप्ति, संज्ञी-असंज्ञी, सम्मूर्च्छिम-जन्म, उपपात - जन्म, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः-पर्यायज्ञान, दर्शनमोहनीय, चारित्र - मोहनीय, ज्ञानावरणादि अष्टविध-कर्म, अपवर्त्य आयु, अनपवर्त्य आयु, विस्रसा परिणमन, प्रयोगपरिणमन, पल्योपम, सागरोपम, पुद्गल - परावर्तन, अस्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, पर्याय, नय, निक्षेप, स्याद्वाद, अनेकान्तवाद आदि ऐसे शताधिक शब्द हैं, जो मात्र जैन दर्शन में प्राप्त होते हैं, अन्य दर्शनों में नहीं। ये पारिभाषिक शब्द जैनदर्शन को मौलिक सिद्ध करने हेतु पर्याप्त हैं। जैनागमों की वर्णनशैली भी विशिष्ट है। कई प्रश्नों के उत्तर भगवान महावीर के द्वारा द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव के आधार पर दिए गए हैं। कहीं द्रव्य एवं पर्याय के आधार पर प्रश्नों का समाधान किया गया है। उदाहरण के लिए नारक आदि जीव शाश्वत हैं या अशाश्वत, इस प्रश्न के उत्तर में भगवान महावीर ने फरमाया कि जीव-द्रव्य की दृष्टि से नारकादि जीव शाश्वत हैं तथा मनुष्य, तिर्यंच एवं देव की विभिन्न पर्यायों को ग्रहण करने की अपेक्षा अशाश्वत हैं। जिस भ्रमर को हम काले रंग का जानते हैं, उसे व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में निश्चय नय से पाँच वर्णों का बताया गया है। यह कथन आज के विज्ञान से भी अविरुद्ध है। viii जैनदर्शन की तत्त्वमीमांसा न्याय-वैशेषिक आदि वस्तुवादी दर्शनों से कुछ विशिष्टता रखती है। वस्तुवादी जैनदर्शन में धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय नामक दो द्रव्य ऐसे हैं, जो अन्य किसी भारतीय दर्शन में विवेचित नहीं हैं। धर्मास्तिकाय वह द्रव्य है जो सम्पूर्ण लोक में व्याप्त है तथा जीव व पुद्गल की गति - क्रिया में सहायक है। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय भी सम्पूर्ण लोक में व्याप्त है तथा जीव एवं पुद्गल की स्थिति में सहायक है। ये दोनों द्रव्य हमें दृग्गोचर नहीं होते, क्योंकि ये वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्श से रहित हैं। आकाश को न्याय-वैशेषिक आदि दर्शन शब्द गुण वाला प्रतिपादित करते हैं, जबकि जैनदर्शन में इसे धर्म, अधर्म, पुद्गल, जीव आदि द्रव्यों को स्थान देने वाला अर्थात् अवगाह लक्षण वाला निरूपित किया गया है। जैनदर्शन में पंचभूतों की मान्यता नहीं है। प्रायः भारतीय परम्परा में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश को पंचमहाभूत कहा गया है। जैनदर्शन में आकाश को अजीव द्रव्य के रूप में तथा शेष चार को सजीव होने पर एकेन्द्रिय जीवों के 1
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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