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________________ श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् स्थिर ज्योतिष्क का मान पूर्वोक्त विष्कम्भ तथा ऊँचाई का आधा भाग जानना. मनुष्यलोक में रहे हुवे ज्योतिष्क विमान लोकस्थिती से लगातार गति वाले हैं तो भी ऋद्धि विशेष के वास्ते और आभियोगिक नामकर्म के उदय से लगातार गति में आनन्द मानने वाले देवता उन विमानों को वहन करते हैं. वे देव पूर्व दिशा में सिंह के रूप वाले, दक्षिण में हाथी के रूप वाले, पश्चिम में बलद के रूप वाले और उत्तर में घोड़ा के रूप वाले होते हैं. तत्कृतः कालविभागः उनसे काल का विभाग किया हुवा है. ___ उन काल के विभागों में से परम सूक्ष्म क्रियावान्, सब से जघन्य गति में परिणत जो परमाणु है उस परमाणु के निज के अवगाहन क्षेत्र के व्यतिक्रम का जो काल है अर्थात् जितने काल में अपने क्षेत्र से दूसरे में पलटा खाके स्थित होता है या केवल पल्टा खाता है वह काल समय कहलाता है. और वह समय रूप काल सूक्ष्म होने से अत्यन्त दुर्गम्य है अर्थात् बुद्धिमानों से भी दुःख से जाना जाता है, और "यह ऐसा है" इस प्रकार निर्देश करने योग्य ( दूसरे को दर्शाने योग्य) नहीं है । उस समय रूप काल को भगवान परमर्षि केवली (केवलज्ञान सम्पन्न ) जन हो जानते हैं, न कि उसको निर्देश करके अन्य को दर्शाते हैं। क्योंकि वह अति सूक्ष्म होने से परमनिरुद्ध है। परमनिरुद्ध उस समय रूप काल में भाषाद्रव्यों के वाणी का शब्दादिके ग्रहण तथा त्याग में करणों के (इन्द्रियों के) प्रयोग का असम्भव है । और वे असंख्येय समय मिलके एक भावलिका होती है। और वे संख्येय आवलिकायें मिलकर एक उच्छवास तथा निश्वास होता है। और वे उच्छवास तथा निश्वास मिलकर
SR No.022521
Book TitleTattvarthadhigam Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabhsagar Gani
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year1971
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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