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________________ चतुर्थोऽध्यायः समभूतला पृथ्वी से ८०० योजन पर सूर्य, वहां से ८० योजन चन्द्र वहाँ से २० योजन पर प्रकीर्णक तारे हैं, ग्रह और तारे अनियमित गति वाले होने से चन्द्र, सूर्य, के ऊपर और नीचे चलते हैं. उन ज्योतिष्क के मुकुटों में मस्तक और मुकुट को ढके ऐसे तेज के मंडल अपने अपने, आकार वाले होते हैं. (१४) मेरुप्रदक्षिणानित्यगतयो नृलोके । मेरुपर्वत की प्रदक्षिणा करते बराबर गति करने वाले ज्योतिष्कदेव मनुष्यलोक में हैं. मेमपर्वत से अग्यारा सो इक्कीस योजन चारों तरफ दूर मेक के प्रदक्षिणा करते हुवे ज्योतिष्क देव घूमते है। जम्बूद्वीप में दो सूर्य, व्रणसमुद्र में चार, धातकीखंड में बारा, कालोदसमुद्र में बयालीस और पुष्करार्धद्वीप में बहोचर, इस तरह सब मिलकर १३२ सूर्य मनुष्यलोक में हैं. · चन्द्र भी सूर्य की तरह है. एक चन्द्र का परिसर २८ नक्षत्र ८८ ग्रह, और ६६६७५ कोडाकोडी तारे हैं (यानी जहाँ जितने चन्द्र हो उनको परोक्त नक्षत्रादि की संख्या से गुणां करने से उस क्षेत्र की समस्त नक्षत्रादि की संख्या आती है. ) सूर्य, चन्द्र, प्रह और नक्षत्र तिर्यग लोक में हैं और प्रकीर्णक तारे (तारे समभूतला पृथ्वी से १०० योजन ऊचे होने से उनके विमान तिर्यग लोक की ऊपर ऊर्ध्व लोक में आते हैं ) ऊर्ध्व लोक में हैं, सूर्यमंडल का विष्कम्भ ४६ योजन, चन्द्रमंडल की १६ योजन, ग्रह का दो गाऊ, नक्षत्र का एक गाऊ और नाराओं का आधा गाऊ हैं, सबसे छोटे ताराओं का विष्कम्भ पांचसो धनुष्य है, विष्कम्भ से ऊंचाई आधी समझनी. ये सब सूर्यादिका मान कहा। वह मनुष्यलोक में रहे हुवे चर ज्योतिष्क का समझना. अढीद्वीप से बाहिर रहे हुवे
SR No.022521
Book TitleTattvarthadhigam Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabhsagar Gani
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year1971
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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