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________________ चतुर्थोऽध्यायः ४७ बलवान् समर्थ इन्द्रिय, सहित नीरोग, युवा और स्वस्थ मनवाले पुरुष का एक प्राण है । सप्र प्राण मिल के एक स्तोक होता है । सप्त (सात) स्तोक का एक लव होता है । अड़तीस तथा अर्द्ध अर्थात् साढ़े अड़तीस लवकी एक नालिका होती है । दो नालिका का एक मुहूर्त होता है । और तीस मुहूर्त का एक रात्रि-दिन होता है । पन्द्रह (१५) रात्रिदिन का एक पक्ष होता है । और दो पक्ष शुक्ल तथा कृष्ण पक्ष मिलकर एक मास होता है। दो मास का एक ऋतु होता है। तीन ऋतु का एक अयन होता है । और दो अयन का एक वर्ष होता है। और वे पाँच वर्ष चन्द्र चन्द्रा भिवर्षित तथा चन्द्रा भिवधित नाम वाले मिलकर एक युग होता है । भार उस पंच वर्ष रूप युग के मध्य और अन्त में अधिक-मास (दो अधिकमास होते हैं । सूर्य, सावन, चन्द्र, नक्षत्र तथा अभिवर्धित युगों के नाम हैं और चौरासी से गुणित शत सहस्र वर्ष, अर्थात् एक लक्ष को चौरासी से गुणा करने से चौरासी लक्ष हुए और वे चौरासी लक्ष वर्ष मिल के एक पूर्वाङ्ग होता है। शतसहस्र पूर्वाङ्ग अर्थात् एक लक्ष पूर्वाङ्ग चौरासी से गुणित होने से चौरासी लक्ष पूर्वाङ्गका एक पूर्व होता है । वे पूर्व अयुत, कमल, नलिन, कुमुद, तुद्य, टटा, ववा, हाहा, हूहू ज्ञक चौरासी शतसहस्र (चौरासी लक्ष ) से गुणित होने से एक संख्येय काल होता है। अब इसके आगे उपमा से नियत काल कहेंगे। जैसे-एक योजन चौडा तथा एक योजन ऊंचा वृत्ताकार एक पल्य (रोमगर्तगढ़ा) हो जो कि एक रात्रि से लेकर सप्तरात्रि पर्यन्त उत्पन्न मेषादि पशुओं के लोमों (रोमों) से गाढ़ रूप से अर्थात् ठासके पूर्ण किया जाय. तत् पश्चात् सौ सौ वर्ष के अनन्तर एक एक रोम उस गढ़ेमें से निकाला जाय. तो जितने काल में वह गढा सर्वथा रिक्त अर्थात् खाली हो जाय उसको एक पल्योपम कहते हैं । और वह पल्योपम दश कोटाकोटि से गुणा करने से एक सागरोपम काल होता है. और चार कोटाकोटी
SR No.022521
Book TitleTattvarthadhigam Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabhsagar Gani
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year1971
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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