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________________ 187 आचार्य समन्तभद्र के अनुसार जीवन में आचरित तपों का फल अन्त समय में गृहीत संलेखना-संथारा ही है। संथारा आत्महत्या नहीं है समाधिमरण की अवधारणा से अनभिज्ञ कई विज्ञजनों का यह आक्षेप है कि समाधिमरण आत्महत्या है। उनका कहना है कि जैन परम्परा का यह मानना है कि जीने की आकांक्षा या मरने की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए? तो क्या संथारा करना मरने की आकांक्षा नहीं है? . - जैन दर्शन में संथारा के पीछे रही भावना को यदि सही ढंग से समझ लिया जाए तो यह स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है कि संथारा मरने की आकांक्षा या आत्महत्या नहीं है। व्यक्ति आत्महत्या क्रोध के वशीभूत होकर, सम्मान पर गहरी चोट पहुंचने पर अथवा जीवन से निराश होने पर करता है। ये सभी चित्त की सांवेगिक अवस्थाएँ हैं। जबकि संथारा चित्त में समत्व की अवस्था है। व्यक्ति आवेश में आकर संथारा नहीं लेता और न ही मरने की भावना से संथारा लेता है। इसलिए वह आत्महत्या नहीं है। जिस प्रकार बड़ी सावधानीपूर्वक रोगी की शल्यचिकित्सा करने पर भी यदि रोगी मर जाता है तो डॉक्टर को हत्यारा नहीं कहा जाता उसी प्रकार संथारा में होने वाली मृत्यु आत्महत्या नहीं है। दूसरी बात आत्महत्या करने वाले के मन में मरने की इच्छा रहती है किन्तु संथारा करने वाले के मन में न जीने की इच्छा होती है और न मरने की आकांक्षा होती है। संथारा स्वीकार करने वाला यह संकल्प स्वीकार करता है कि मैं जीने और मरने की आकांक्षा से रहित होकर आत्मरमण करूंगा। मरने की आकांक्षा करना समाधिमरण का दोष माना गया है. अतः संथारा को आत्महत्या नहीं कहा जा सकता। संथारा में आहार आदि के त्याग द्वारा मृत्यु की
SR No.022500
Book TitleJain Tattva Mimansa Aur Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRujupragyashreeji MS
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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