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________________ 121 स्वस्थानात् यत् परस्थान प्रमादवशतो गतः। तत्रैव क्रमणंभूयः प्रतिक्रमणमुच्यते।। व्यक्ति प्रमाद के कारण अपने स्वभाव-क्षमा, मैत्री, करुणा आदि का छोड़कर परभाव-क्रोध, मान आदि में चला गया हो तो उस परभाव से पुनः अपने स्वभाव में लौटने का नाम प्रतिक्रमण है। यह आत्मशुद्धि की साधना है। अशुभ से शुभ की ओर लौटने की साधना है। श्रमण और श्रावक के द्वारा अपने स्वीकृत व्रतों में किसी भी प्रकार की स्खलना हो गई हो तो प्रतिक्रमण के द्वारा वह उसकी शुद्धि करता है। प्रतिक्रमण के भेद प्रतिक्रमण के दो प्रकार बताये गए हैं-द्रव्य प्रतिक्रमण और भाव प्रतिक्रमण। द्रव्य प्रतिक्रमण में साधक बिना किसी भावना के यंत्रवत् उच्चारण करता रहता है। कृत दोषों के प्रति मन में ग्लानि के भाव नहीं होते और भविष्य में भी पुनः पुनः उन्हीं दोषों का सेवन करता रहता है। _ भाव प्रतिक्रमण में साधक के मन में अपने कृत दोषों के प्रति गहरी ग्लानि होती है। वह चिन्तन करता है-मैंने इस प्रकार की स्खलनाएँ क्यों की? भविष्य में उन्हें पुनः न दोहराने का दृढ़ संकल्प करता है। काल की दृष्टि से प्रतिक्रमण के पांच प्रकार बताये गए हैं1. दैवसिक, 2. रात्रिक, 3. पाक्षिक, 4. चातुर्मासिक और 5. सांवत्सरिक। दैवसिक-प्रतिदिन सायंकाल के समय पूरे दिन में आचरित पापकर्म का चिन्तन कर उसकी आलोचना करना दैवसिक प्रतिक्रमण
SR No.022500
Book TitleJain Tattva Mimansa Aur Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRujupragyashreeji MS
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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