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________________ 122 रात्रिक-प्रतिदिन प्रातःकाल के समय सम्पूर्ण रात्रि में आचरित पापकर्म का चिन्तन कर उसकी आलोचना करना रात्रिक प्रतिक्रमण पाक्षिक-पक्ष के अन्त में पूर्णिमा और अमावस्या के दिन सम्पूर्ण पक्ष (15 दिन) में आचरित पापों का विचार कर उसकी आलोचना करना पाक्षिक प्रतिक्रमण है। चातुर्मासिक-कार्तिकी पूर्णिमा, फाल्गुनी पूर्णिमा और आषाढ़ी पर्णिमा को चार महीने में आचरित पापों का विचार कर उनकी आलोचना करना चातुर्मासिक प्रतिक्रमण है। ___ सांवत्सरिक-प्रत्येक वर्ष संवत्सरी महापर्व के दिन वर्षभर के पापों का चिन्तन कर उसकी आलोचना करना सांवत्सरिक प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण का प्रयोजन प्रतिक्रमण भाव-परिष्कार का एक बहुत अच्छा प्रयोग है। इसके तीन चरण हैं 1. अइयं पडिक्कमामि-अतीत का प्रतिक्रमण करना। 2. पडुपुण्णं संवरेमि-वर्तमान का संवर करना। 3. अणागयं पच्चक्खामि- भविष्य का प्रत्याख्यान करना। . अतीत का प्रतिक्रमण- प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि मन में कभी बुरे भाव न आएं पर निमित्त मिलते ही बुरे भाव आ जाते हैं। बुरे भावों से बचने के लिए अतीत के संस्कारों का प्रतिक्रमण करना आवश्यक है। जब तक अतीत का प्रतिक्रमण नहीं होता, उनका शोधन नहीं होता तब तक भाव-परिष्कार की दिशा में गति नहीं होती। वर्तमान का संवर–अतीत का प्रतिक्रमण होने पर भी जब तक वर्तमान का संवर नहीं होता, तब तक मलिनता पुनः आती रहती
SR No.022500
Book TitleJain Tattva Mimansa Aur Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRujupragyashreeji MS
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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