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________________ 120 3. वंदना तीसरा आवश्यक वंदना है। साधना के आदर्श रूप तीर्थंकर होते हैं, किन्तु साधनामार्ग के पथ-प्रदर्शक गुरू होते हैं। गुरू के प्रति विनय करना वंदना आवश्यक है। यह मन, वचन, काय की वह प्रशस्त वृत्ति है, जिसमें साधक आचार्य, गुरू, ज्येष्ठ श्रमणों के प्रति श्रद्धा और बहुमान प्रकट करता है। गुरू वही होता है, जिसका चारित्र उत्कृष्ट होता है, जो सचमुच वन्दनीय होता है। .. वंदना विधि-जिन आचार्य, श्रमण आदि को वन्दना की जाती है, उनमें तथा वन्दनकर्ता के मध्य एक हाथ का अन्तराल होना चाहिए। फिर वन्दनकर्ता को अपने मस्तक से गुरू, आचार्य आदि के चरणों में बाधा न पहुंचाते हुए वन्दन करना चाहिए। जिस वंदन में भक्ति और श्रद्धा नहीं होती केवल प्रलोभन और प्रतिष्ठा की भावना होती है, वह द्रव्य वंदन है। यह कभी-कभी कर्मबंधन का कारण बन जाता है। भय और प्रलोभन से रहित हो पवित्र और निर्मल भावना के साथ वंदन करना ही भाव वंदन है। इससे कर्मों की निर्जरा होती है। वंदना के लाभ वंदना करने से अहंकार का नाश होता है और विनय की प्राप्ति होती है। शुद्ध भावों से वंदना करने पर नीच गोत्र का क्षय और उच्च गोत्र का बंधन होता है। वंदना करने वाला व्यक्ति विनय के द्वारा लोकप्रियता प्राप्त करता है। 4. प्रतिक्रमण मन, वचन और काय से जो अशुभ आचरण किया जाता है, दूसरों से करवाया जाता है अथवा करने वालों का अनुमोदन किया जाता है, इन सबकी निवृत्ति के लिए अपने कृतपापों की आलोचना करना प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण को स्पष्ट करते हुए कहा गया
SR No.022500
Book TitleJain Tattva Mimansa Aur Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRujupragyashreeji MS
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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