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________________ 119 है किन्तु चंचल मन को स्थिर करने के लिए उसे किसी आलम्बन की आवश्यकता रहती है। आत्म-साधक के लिए वीतराग तीर्थंकर देव ही सर्वश्रेष्ठ आलम्बन हैं, क्योंकि उसका ध्येय भी वीतरागता है। ऋषभ से लेकर महावीर तक चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करना चतुर्विंशतिस्तव नामक दूसरा आवश्यक है। जैन दर्शन के अनुसार केवल तीर्थंकरों की स्तुति से मोक्ष या समाधि की प्राप्ति नहीं होती, जब तक कि मनुष्य स्वयं प्रयास न करे। तीर्थंकर तो साधना-मार्ग के प्रकाश-स्तम्भ हैं। जिस प्रकार गति करना जहाज का कार्य है किन्तु प्रकाश-स्तम्भ की उपस्थिति में भी जब तक जहाज गति नहीं करता, वह उस पार नहीं पहुंच सकता। उसी प्रकार तीर्थकर साधना करने वाले साधक का मार्ग प्रशस्त करने वाले प्रकाश-स्तम्भ हैं। स्तुति (स्तव) के भेद मन, वचन और काय के भेद से स्तुति के तीन भेद हैंमन से चौबीस तीर्थंकरों के गुणों का स्मरण करना मनस्तव है। वचन से लोगस्स उज्जोयगरे....... का उच्चारण कर तीर्थंकरों की स्तुति बोलना वचनस्तव है। हाथ जोड़कर तीर्थंकर भगवान को नमस्कार आदि करना कायकृतस्तव है। स्तुति के लाभ ... तीर्थंकरों की स्तुति करने से अनेट लाभ होते हैं। स्तुति से दर्शन विशुद्धि होती है। दर्शन विशुद्धि होने से भावों की .शुद्धि और मन की निर्मलता बढ़ती है। तीर्थंकर जैसा बनने की प्रेरणा मन में जागती है। ..
SR No.022500
Book TitleJain Tattva Mimansa Aur Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRujupragyashreeji MS
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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